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________________ गाथा समयसार __वस्तुस्वरूप को नहीं जाननेवाले पुरुष व्यवहार कथन को ही परमार्थ रूप से ग्रहण करके ऐसा कहते हैं कि परद्रव्य मेरा है; परन्तु ज्ञानीजन निश्चय से ऐसा जानते हैं कि परमाणुमात्र परपदार्थ मेरा नहीं है। जिसप्रकार कोई मनुष्य इसप्रकार कहता है कि हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर और हमारा राष्ट्र है; किन्तु वे उसके नहीं हैं; वह मोह से ही ऐसा कहता है कि वे मेरे हैं। __ इसीप्रकार यदि कोई ज्ञानी भी परद्रव्य को निजरूप करता है, परद्रव्य को निजरूप मानता है, जानता है तो ऐसा जानता हुआ वह नि:संदेह मिथ्यादृष्टि है। इसलिए परद्रव्य मेरे नहीं हैं - यह जानकर तत्त्वज्ञानीजन लोक और श्रमण - दोनों के पर-द्रव्य में कर्तृत्व के व्यवसाय को सम्यग्दर्शन रहित पुरुषों का व्यवसाय ही जानते हैं। (३२८ से ३३१) मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं। तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो।। अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं । तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो। अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं । तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं। अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं । तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा। मिथ्यात्व नामक प्रकृति मिथ्यात्वी करे यदि जीव को। फिर तो अचेतन प्रकृति ही कर्तापने को प्राप्त हो॥ अथवा करे यह जीव पुद्गल दरब के मिथ्यात्व को। मिथ्यात्वमय पुद्गल दरब ही सिद्ध होगा जीव ना ||
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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