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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोक रु श्रमण को । रे मोक्ष दोनों का दिखाई नहीं देता है मुझे ॥ लौकिकजनों के मत में देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्य रूप प्राणियों को विष्णु करता है और यदि श्रमणों के मत में भी छहकाय के जीवों को आत्मा करता हो तो फिर तो लौकिकजनों और श्रमणों का एक ही सिद्धान्त हो गया; क्योंकि उन दोनों की मान्यता में हमें कोई भी अन्तर दिखाई नहीं देता । लोक के मत में विष्णु करता है और श्रमणों के मत में आत्मा करता है । इसप्रकार दोनों की कर्तृत्व संबंधी मान्यता एक जैसी ही हुई । इसप्रकार देव, मनुष्य और असुरलोक को सदा करते हुए ऐसे वे लोक और श्रमण – दोनों का ही मोक्ष दिखाई नहीं देता । (३२४ से ३२७ ) ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भांति अविदिदत्था । जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि ॥ जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररहूं । णय होंति जस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा ।। एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो । जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि ।। तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं । परदव्वे जाणतो जाणेज्जो दिट्ठरहिदाणं ।। अतत्त्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें। पर तत्त्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं || ग्राम जनपद राष्ट्र मेरा कहे कोई जिसतरह । किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ॥ इसतरह जो 'परद्रव्य मेरा' जानकर अपना करे । संशय नहीं वह ज्ञानि मिथ्यादृष्टि ही है जानना || 'मेरे नहीं ये' जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते । है अज्ञता कर्तृत्वबुद्धि लोक एवं श्रमण की ॥ A ―― ९५
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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