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________________ .૦ ( त्रिस्तुतिपरामर्श . ) अथवा घणां चैत्य होय - अने-बधामां त्रणत्रण स्तुति कहतां घणीवार लागे - तेलीवार टकी- शकाय एम-न-होय-तो एकएक थोय कहेवी, पण जेजे देहरे गयां त्यां स्तुति कह्याविना पार्छु- न-फरबु, - देखिये ! यहां भी वही बात है जो जैनतत्वादर्शमें फरगाह है, प्रतिक्रमण व तीनथुई करना किसीजगह जिक्र नही, नाहक ! लोग भल में पडे है, कहां मंदिर की बात और कहां प्रतिक्रमणकी - ?-जमीन-आसमान का फर्क है, - (१७) ( जवाब - विवेचनप्रिय - जैनबंधुके सवालों का,) १ - (सवाल) जैन तत्वादशमें ऋणथइ चैत्यमां करनी-सो- कैसे ? और क्या ! मुद्दाहै, ? - ( जवाब . ) चैत्यपरिपाटी के वख्त मंदीरमें तीनस्तुति बोलना, बस ! यही मुद्दा आरै यही बातह, दुसरा कोइबात नही, अगर वख्त थोडाहो तो एक एक जिनमंदिरमें एकएक स्तुति पढनाभी पाठ है, जैनतत्वादर्श - और - श्राद्धविधिका पाठ उपर लिखचुके जिनकों शकहो - दोनों - ग्रंथ खोलकर देखे, २ - सवाल, सदा रंगेहुवे कपडे पहनना कहां कहा है ? ( जवाब ) निशीथसूत्र के अठारमें उदेशेमें कहा है कि - जैनमुनि-नकपडेकों कथ्ये चुनेवगेराका रंगदेवे, जिसको शकहो निशीथसूत्रका अठारवा उदेशा देख लेवे, ३ – सवाल, करमिभंते पहिले और इर्यापथिका पीछे -सो-कैसे, १
SR No.032003
Book TitleTristuti Paramarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantivijay
PublisherJain Shwetambar Sangh
Publication Year1907
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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