SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म का विज्ञान उस फल में से बीज गिरता है और वापिस पेड़ बनता है और पेड़ में से वापिस फल बनता है न! वह चलता ही रहेगा, कर्म में से कर्मबीज गिरते ही रहते हैं। प्रश्नकर्ता : तो फिर ये शुभ-अशुभ कर्म बंधते ही रहते हैं, छूटते ही नहीं? दादाश्री : हाँ, ऊपर से गूदा खा लेते हैं और गुठली वापिस डलती प्रश्नकर्ता : उससे तो वहाँ फिर से आम का पेड़ उत्पन्न होगा। दादाश्री : छूटेगा ही नहीं न! यदि आप ईश्वर को कर्त्ता मानते हो तो आप अपने आप को कर्त्ता किसलिए मानते हो? यह तो वापिस खुद भी कर्ता बन बैठता है! सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है कि जो 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भान रखता है, और जहाँ कर्ता बना वहाँ आश्रितता टूट जाती है। उसे भगवान कहते हैं कि, 'भाई, तू कर लेता है तो तू अलग और मैं अलग।' फिर भगवान का और आपका क्या लेना-देना? खुद को कर्त्ता मानता है, इसलिए कर्म बंधन होता है। खुद को यदि उस कर्म का कर्त्ता नहीं माने तो कर्म का विलय होता है। यह है महाभजन का मर्म इसलिए अखा भगत ने कहा है कि, 'जो तू जीव तो कर्त्ता हरि, जो तू शिव तो वस्तु खरी!' अर्थात् यदि 'तू शुद्धात्मा है' तो सच्ची बात है। और यदि 'जीव है', तो ऊपर कर्त्ता हरि है। और यदि 'तू शिव है' तो वस्तु खरी है। ऊपर हरि नाम का कोई है ही नहीं। यानी जीव-शिव का भेद गया तब परमात्मा होने की तैयारी हुई। ये सभी भगवान को भजते हैं, वह जीव-शिव का
SR No.030118
Book TitleKarma Ka Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy