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________________ आत्मा ही है, शुद्धात्मा ही है, परन्तु उसका भान नहीं, ज्ञान नहीं, इसलिए मैं चंदूलाल, मैं ही देह हूँ ऐसा मानता है। यही अज्ञानता है ! और इससे ही कर्म बँधते हैं। छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म, नहीं भोक्ता तू तेहनो ए छे धर्मनो मर्म।- श्रीमद् राजचंद्र। जो तू जीव तो कर्त्ता हरि, जो तू शिव तो वस्तु खरी। अखा भगत। 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा भान है उसे जीवदशा कहा है और मैं चंदूलाल नहीं हूँ परन्तु वास्तव में मैं तो शुद्धात्मा हूँ, उसका भान, ज्ञान बरते उसे शिवपद कहा है। खुद ही शिव है, आत्मा ही परमात्मा है और उसका स्वभाव कोई भी संसारी चीज़ करने का नहीं है। स्वभाव से ही आत्मा अक्रिय है, असंग है। मैं आत्मा हूँ' और मैं कुछ भी नहीं करता हूँ', ऐसा निरंतर ध्यान में रहे उन्हें ज्ञानी कहा है और उसके बाद फिर एक भी नया कर्म नहीं बँधता। पुराने डिस्चार्ज कर्म फल देकर खत्म होते रहते हैं। जो कर्मबीज पिछले जन्म में बोते हैं, उन कर्मों का फल इस जन्म में आता है। तब ये फल कौन देता है? भगवान? नहीं। वह कुदरत देती है। जिसे परम पूज्य दादाश्री साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स – 'व्यवस्थित शक्ति' कहते हैं। जिस चार्ज का डिस्चार्ज नेचरली और ऑटोमेटिकली होता है। उस फल को भोगते समय अज्ञानता के कारण फिर से पसंद-नापसंद, राग-द्वेष किए बगैर रहता नहीं है। जिससे नए बीज डालता है। जिसका फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। ज्ञानी नया बीज डालने से रोकते हैं, जिससे पिछले फल पूरे होकर मोक्षपद की प्राप्ति होती है! ___ कोई अपना अपमान करे, नुकसान करे, वह तो निमित्त है, निर्दोष है। बिना कारण के कार्य में किस तरह आएगा? खुद अपमानित होने के कारण बाँधकर लाया है उसका फल, उसका इफेक्ट आकर खड़ा रहता है, तब उसके लिए दूसरे कितने ही दिखनेवाले निमित्त उसमें इकट्ठे होने चाहिए। सिर्फ बीज से ही फल नहीं बनता, परन्तु सारे ही निमित्त इकट्ठे
SR No.030118
Book TitleKarma Ka Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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