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________________ बहुतों को यह प्रश्न होता है कि पहला कर्म किस तरह बँधा? पहले देह या पहले कर्म? पहले अंडा या पहले मुर्गी? इसके जैसी यह बात हुई! सचमुच वास्तविकता में पहले कर्म' जैसी वस्तु ही नहीं है वर्ल्ड में कोई! कर्म और आत्मा सब अनादिकाल से हैं। जिन्हें हम कर्म कहते हैं, वह जड़ तत्व का है और आत्मा चेतन तत्व है। दोनों तत्व अलग ही हैं और तत्व अर्थात् सनातन वस्तु कहलाती है। जो सनातन है, उसकी आदि कहाँ से? यह तो आत्मा और जड़ तत्व का संयोग हुआ, और उसमें आरोपित भावों का आरोपण होता ही रहा। उसका यह फल आकर खड़ा हुआ। संयोग वियोगी स्वभाव के हैं। इसलिए संयोग आते हैं और जाते हैं। इसलिए तरह-तरह की अवस्थाएँ खड़ी हो जाती हैं और चली जाती हैं। उसमें रोंग बिलीफ़ खड़ी हो जाती है कि यह मैं हूँ और यह मेरा है।' उससे यह रूपी जगत् भास्यमान होता है। यह रहस्य समझ में आए, तो शुद्धात्मा और संयोग दो ही वस्तुएँ हैं जगत् में। इतना नहीं समझने से तरह-तरह की स्थूल भाषा में कर्म, नसीब, प्रारब्ध सब कहना पड़ा है। परन्तु विज्ञान इतना ही कहता है, मात्र जो सभी संयोग हैं, उनमें से पर हो जाए तो आत्मा में ही रह सकता है! तब फिर कर्म जैसा कुछ रहेगा ही नहीं। कर्म किस तरह बँधते हैं? कर्त्ताभाव से कर्म बँधते हैं। कर्त्ताभाव किसे कहते हैं? करे कोई, और मानता है कि मैं करता हूँ', वह कर्त्ताभाव। कर्त्ताभाव किससे होता है? अहंकार से। अहंकार किसे कहते हैं? जो खुद नहीं है, वहाँ मैं पन' का, उसका नाम अहंकार। आरोपित भाव, वह अहंकार कहलाता है। मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा मानता है, वही अहंकार है। वास्तव में खुद चंदूलाल है? या चंदूलाल नाम है? नाम को 'मैं' मानता है, शरीर को 'मैं' मानता है, मैं पति हूँ, ये सभी रोंग बिलीफ़ हैं। वास्तव में तो खुद 10
SR No.030118
Book TitleKarma Ka Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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