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________________ गुरु-शिष्य ८७ नहीं तो घड़े को बनाओ गुरु प्रश्नकर्ता : परंतु जब गुरु बनाते हैं न, तब शिष्य में इतनी समझ नहीं होती। दादाश्री : और यह समझदारी का बोरा(!) हुआ, इसलिए अब गुरु को नठारा कहें? इसके बदले तो भीम था न, उस भीम का तरीक़ा अपनाना। दूसरे चार भाईयों का तरीक़ा नहीं अपनाना है हमें। क्योंकि किसी गुरु के पास नमस्कार करना पड़े तो भीम को कँपकँपी छूटती थी, अपमान जैसा लगता था। इसलिए भीम ने क्या सोचा? कि 'ये गुरु मुझे पुसाते नहीं। ये सारे मेरे भाई बैठते हैं, उन्हें कुछ नहीं होता और मैं तो देखता हूँ और मेरा अहंकार उछलने लगता है। मुझे उल्टे विचार आते हैं। मुझे गुरु तो बनाने ही चाहिए। गुरु के बिना मेरी क्या दशा होगी?' उसने रास्ता ढूँढ निकाला। एक मिट्टी का घड़ा था, उसे जमीन में उल्टा गाड दिया और ऊपर काला रंग किया और लाल अक्षर में लिखा कि 'नमो नेमीनाथायः' श्याम, नेमीनाथ काले थे इसलिए ब्लेक रंग किया! और फिर उसकी भक्ति की। हाँ, वह घड़ा गुरु और खुद शिष्य! यहाँ पर गुरु प्रत्यक्ष आँखों से नहीं दिखते हैं और उन प्रत्यक्ष गुरु के सामने उसे शर्म आती थी और नमस्कार नहीं करते थे, और यहाँ घड़ा उल्टा गाड़कर दर्शन किए, इसलिए भक्ति शुरू हो गई, फिर भी फल मिलता रहता था। क्योंकि पोइज़न नहीं होता था। यहाँ वैसा यदि उछाल आने लगे न तो आपका कल्याण हो जाए! यानी सुबह होती, शाम होती कि भीम वहाँ पर बैठ जाते। तो ऐसे गुरु अच्छे कि कभी गुस्सा तो नहीं आता हमें, झंझट तो नहीं है। गुस्सा आए तब घड़ा उखाड़ दें, और उन मनुष्यों पर तो बैठी हुई श्रद्धा, वह तो मार ही डालती है, क्योंकि भीतर भगवान हैं। उस घड़े पर तो सिर्फ आरोपण ही है, हमने भगवान का आरोपण किया है। प्रश्नकर्ता : घड़े को गुरु बनाया, फिर भी लाभ मिला?
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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