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________________ गुरु-शिष्य पसंद करके लिया, और फिर क्या? वह वापिस क्या काँच हो जाएगा? वह तो हीरा ही है। इस पर से मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। हमने खुद एक पेड़ लगाया हो और वहाँ पर हमें ही रेल्वे लाइन डालनी हो और पेड़ रेल्वे के बीच में आता हो और यदि काटने का अवसर आए, तो मैं कहूँ कि मैंने लगाया है, मैंने पानी से सींचा है, इसलिए रेल्वे लाइन बदल दो परंतु पेड़ को नहीं काटना चाहिए। इसलिए एक महाराज के मैंने पैर छुए हों, तो वे चाहे जो करें, तो भी मेरी दृष्टि मैं नहीं बिगाडूं। क्योंकि वे तो कर्माधीन हैं। जो दिखता है वह सारा ही कर्माधीन है। मैं जानता हूँ कि इन्हें कर्म के उदय ने घेर लिया है। इसलिए दूसरी दृष्टि से नहीं देखते ऐसा-वैसा। यदि पेड काटना था तो उसे पालना-पोसना नहीं था, और पाला-पोसा है तो काटना नहीं। यह हमारा सिद्धांत है पहले से! आपका सिद्धांत क्या है? समय आए तो काट देंगे, बिना सोचेसमझे? इसलिए जिन्हें पूजते हैं, उन्हें उखाड़ मत देना। नहीं तो फिर जिन्हें पूजा है, चालीस वर्षों से पूजा है और इकतालीसवें वर्ष में हटा दें, काट दें, तो चालीस वर्षों का तो गया, और ऊपर से दोष बँधे। आप जय-जय करना मत और करो तो उसके बाद पूज्यता टूटनी नहीं चाहिए। वह नहीं टूटे, वही इस जगत् का सार है! इतना ही समझना है। इसमें दोष किसका? प्रश्नकर्ता : परंतु इस जगत् में जिस वस्तु को हम पूज्य मानें, वह जब तक अपने अनुरूप हो तब तक संबंध रहता है और थोड़ा-सा उसकी तरफ से कुछ भी उल्टा हुआ कि अपना संबंध बिगड़ा! दादाश्री : हाँ, वह मिट्टी में मिल जाता है। बिगड़े उतना ही नहीं, लेकिन विरोधी बन बैठता है। प्रश्नकर्ता : उसकी तरफ का जो भाव था, वह सारा खत्म हो गया।
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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