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________________ गुरु-शिष्य मार्ग के ज्ञानियों को भी चिंता और शिष्यों को भी चिंता! निरा ताप (डर), ताप और ताप! गुरु को भी ताप! उन तीन शिष्यों को यदि कहा हो कि, 'आज आप चरणविधि कंठस्थ करके आना, आप इतने पद (भजन) कंठस्थ करके लाना।' और फिर एक शिष्य हो वह सिर खुजलाता है कि अब गुरु ने सौंपा तो है, पर कब होगा? घर जाकर याद करता है, पर फिर होता नहीं है न, इसलिए पूरी रात मन में अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) होता रहता है। ऐसे पढ़ता जाता है और चिढ़ता जाता है। चिढ़ता है, तब गुरु के प्रति अभाव आता जाता है कि ऐसा किसलिए बोझा देते हैं वे! गुरु का कहा हुआ करना अच्छा नहीं लगता, तब क्या होता है? अभाव होता है। क्रमिक मार्ग इसका ही नाम! गुरु भी मन में सोचते हैं कि 'यह सब कंठस्थ नहीं करेगा तो आज उसे झिड़कूँगा।' अब शिष्य वहाँ जाए न तो वहाँ जाते-जाते ही उसे डर लगता है कि क्या कहेंगे और क्या नहीं? क्या कहेंगे और क्या नहीं?' तब अरे गुरु किसलिए बनाए थे? रख न एक तरफ। ऐसे ही रहना था न! गुरु के बिना पड़े रहना था न, यदि झिड़की का भय है तो! नहीं तो झिड़की की खुराक लेनी चाहिए। झिड़की की खुराक नहीं चखनी चाहिए? सुबह जब वे शिष्य आएँ, तब उनमें से दो शिष्यों ने कहे अनुसार किया होता है और एक शिष्य से नहीं हुआ हो तो वहाँ गुरु के पास जाकर बैठता है, पर उसके मुँह पर से साहब पहचान जाते हैं कि इसने कुछ भी नहीं किया है। उसका मुँह ही 'कुछ नहीं किया' वैसा दिखता है। इसलिए साहब भीतर मन ही मन में चिढ़ते रहते हैं कि 'कुछ भी नहीं करता, कुछ नहीं करता है।' शिष्य ने कंठस्थ नहीं किया हो, तो वहाँ पर उसे झिडकता है फिर। गुरु की आँखें लाल हो जाती हैं, आँखें लाल ही रहती हैं। यह शिष्य कुछ करे वैसा नहीं है', इसलिए गुरु चिढ़ते रहते हैं और वह शिष्य डरता रहता है। अब इसका ठिकाना कैसे पड़े? इसलिए वहाँ तीन ही शिष्य, जो उनके पीछे लगे हों, उतने ही शिष्यों को पोषण दे सकते हैं वे। दूसरे सब लोग तो दर्शन करके चले जाते हैं। क्रमिक मार्ग में ठेठ तक अकुलाहट जाती नहीं। गुरु और शिष्य, दोनों को अकुलाहट! पर यह अकुलाहट तप है, इसलिए मुँह पर तेज आता है।
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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