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________________ ५२ गुरु-शिष्य तीन होते हैं, अधिक नहीं होते । खरे शिष्य, जो गुरु के पदचिन्हों पर चलनेवाले होते हैं, वैसे दो या तीन होते हैं, वैसा अपने शास्त्रों ने विवेचन किया है। वह मार्ग तो बहुत कठिन होता है न! वहाँ कहेंगे, 'भोजन की थाली दूसरे को दे देनी पड़ेगी।' तब कहे, 'नहीं साहब, मुझे नहीं पुसाएगा । मैं तो अपनी तरह से घर चला जाऊँगा।' कौन वहाँ खड़ा रहे ! इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि क्रमिक मार्ग के हर एक ज्ञानी के पीछे दो-चार शिष्य हुए हैं, कुछ अधिक नहीं हुए । प्रश्नकर्ता : शिष्यों में उतना चारित्र - बल नहीं है ? दादाश्री : हाँ, वह बल कहाँ से लाएँ? इन सबका तो क्या सामर्थ्य? सभीको भोजन करवा रहे हों और उनको अकेले को श्रीखंड नहीं दिया हो तो अकुलाते रहते हैं। अरे, एक ही दिन, एक ही पहर में इतनी अकुलाहट करता है! परंतु अकुलाया करता है। अरे, दूसरे से कम श्रीखंड दिया हो तो भी अकुलाता रहता है! ये लोग चारित्रबल कहाँ से लाएँ? और वैसा मैं एक दिन सभी से कहूँ कि, 'आपको भाता हो वैसा आए तो आप तुरंत ही चखकर दूसरे को दे देना और आपको नहीं भाता हो, वह लेना ।' तो क्या होगा? प्रश्नकर्ता : सब जाने लगेंगे । दादाश्री : हाँ, जाने लगेंगे । 'अच्छा चलते हैं दादा' कहेंगे। दूर से ही 'जय श्री कृष्ण' करेंगे फिर ! इस क्रमिक मार्ग में गुरुओं का कैसा होता है? यह जो व्यवहार कर रहे हैं वही सच है और इसके कर्त्ता हम हैं । इसलिए इसका त्याग हमें करना है। वैसा व्यवहार होता है । व्यवहार भ्रांतिवाला और 'ज्ञान' ढूँढते हैं, तो मिलेगा क्या? आपको कैसा लगता है? मिलेगा ? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : रास्ता ही मूलतः उल्टा है वहाँ पर ! और इसलिए क्रमिक
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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