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________________ गुरु-शिष्य दादाश्री : अपने आप तो किसीको ही ज्ञान होता है, परंतु वह अपवाद के रूप में होता है और इस भव में गुरु नहीं मिले हों, परंतु पूर्वभव में तो गुरु मिले ही होते हैं। बाक़ी सब निमित्त के अधीन है। हमारे जैसे कोई निमित्त मिल आएँ, तो आपका काम हो जाए। तब तक आपको डेवलप होते रहना है। फिर 'ज्ञानीपुरुष' का निमित्त मिले तो उस निमित्त के अधीन सब प्रकट हो जाता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् मनुष्य स्वयं कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता! दादाश्री : स्वयं कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इस दुनिया में किसीको हुआ ही नहीं है। यदि अनुभूति हमें खुद को करनी है तो फिर स्कूलों की ज़रूरत ही नहीं न! कॉलेज़ की ज़रूरत ही नहीं न! स्वयंबुद्ध भी सापेक्ष प्रश्नकर्ता : ये तीर्थंकर तो स्वयंबुद्ध कहलाते हैं न? दादाश्री : हाँ, सभी तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं, परंतु पिछले अवतारों में गुरु के द्वारा उन्हें तीर्थंकर गौत्र बंध चुका होता है। इसलिए स्वयंबुद्ध तो वे अपेक्षा से कहलाते हैं कि इस अवतार में उन्हें गुरु नहीं मिले, इसलिए स्वयंबुद्ध कहलाते हैं। वह सापेक्ष वस्तु है। आज जो स्वयंबुद्ध हुए हैं, वे सभी पिछले अवतारों में पूछ-पूछकर आए हैं, यानी सब पूछ-पूछकर ही जगत् चलता रहता है। अपने आप किसीको ही, स्वयंबुद्ध को होता है, वह अपवाद है। वर्ना गुरु के बिना तो ज्ञान ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : ऐसा कहा जाता है कि ऋषभदेव भगवान ने खुद के बंधन खुद ही तोड़े। यानी उन्हें दूसरे किसीकी ज़रूरत रही नहीं न? दादाश्री : परंतु उन्होंने मदद ली थी, बहुत पहले ली थी। उन्होंने दोतीन अवतारों पहले गुरु से मदद ली थी। मदद लिए बिना कोई मुक्त नहीं हुआ है। इसमें भी निमित्त तो होता ही है। यह तो ऋषभदेव के भव में ऐसा दिखा लोगों को कि अपने आप खुद ही बंधन तोड़े। परंतु खुद ही खुद से
SR No.030116
Book TitleGuru Shishya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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