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________________ ४० समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध) लोगों ने अणहक्क का खाया और पीया है, अणहक्क का तो सभीकुछ किया, कुछ भी करना बाकी नहीं रखा न! संसार यानी 'हक़ का भोगना' ऐसा कहते हैं, और हक़ का भोगने में हर्ज नहीं है। यदि शादी करो और एक से आपको संतोष नहीं हो तो दो शादियाँ करना। बाकी, अपने यहाँ तो तेरह सौ स्त्रियों के साथ शादी करनेवाले भी थे! उसमें भी स्त्री-पुरुष दोनों का हक़ का हो, मालिकी का हो तो उसमें हर्ज नहीं है। हक़ का किसे कहते हैं? जिसे पूरा समाज कबूल करे। शादी के समय सभी बारात में भी आते हैं। लेकिन यदि अणहक्क का हो तो गड़बड़ है। घर में हक़ की होती है, लेकिन फिर भी बाहर अन्य जगह दृष्टि बिगाड़ता है। हक़ का भोगो न। अन्य कहीं अणहक्क की ओर दृष्टि ही क्यों जाए? आपसे जिसने शादी की है, उसके अलावा अन्य कहीं भी पूरी जिंदगी दृष्टि बिगड़नी ही नहीं चाहिए। हक़ का छोड़कर अन्य किसी जगह पर 'प्रसंग' हुआ, तो वह स्त्री जहाँ जाए, वहाँ आपको भी जन्म लेना पड़ेगा। वह अधोगति में जाए तो आपको भी वहाँ जाना पड़ेगा। आजकल बाहर तो हर जगह ऐसा ही होता है। 'कहाँ जन्म होगा?' इसका ठिकाना ही नहीं है। अणहक्क के विषय जिन्होंने भोगे हैं, उन्हें तो भयंकर यातनाएँ भुगतनी पड़ेंगी। एकाध जन्म बाद उसकी बेटी भी चरित्रहीन बनती है। नियम कैसा है कि जिसके साथ अणहक्क के विषय भोगे हों, वही फिर उसकी माँ बनती है या बेटी बनती है। जब से अणहक्क का लिया, तभी से मनुष्यपन चला जाता है। अणहक्क का विषय तो भयंकर दोष कहलाता है। 'हम किसी का भोग लेंगे तो हमारी बेटियों को कोई अन्य भोग लेगा, उसकी चिंता ही नहीं है न! उसका अर्थ यही हुआ न? और ऐसा ही हो रहा है न?! उसकी बेटियों को लोग भोगते ही हैं न? यह बड़ी नालायकी कही जाएगी, 'टोपमोस्ट' नालायकी कही जाएगी। खुद के घर में बेटियाँ हैं फिर भी दूसरों की बेटियों की ओर देखता है? शर्म नहीं आती? 'मेरे घर में भी बेटियाँ हैं,' ऐसा भान रहना चाहिए या नहीं रहना चाहिए? हम किसी और के घर में चोरी करें तो कोई अपने घर में भी चोरी किए बगैर रहेगा ही नहीं न? जहाँ अणहक्क के विषय हों, वहाँ वह किसी भी प्रकार से सुखी नहीं रह सकता। पराया लिया ही कैसे जा सकता है?
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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