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________________ २६६ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध) ज्ञानी के शब्द सोने की कटार यह तो 'बिलीफ' ही 'रोग' थी, वर्ना आत्मा रागी भी नहीं था और द्वेषी भी नहीं था। राग-द्वेष आत्मा में हैं ही नहीं। आत्मा में वे गुण हैं ही नहीं। ये सभी आरोपित भाव हैं। आरोपित भाव कैसे हैं ? व्यवहार के हैं। यानी कि सिर्फ आपकी 'बिलीफ' ही रोंग है कि 'मुझे राग हो रहा है, और मुझे द्वेष हो रहा है।' जो उस 'रोंग बिलीफ' को उखाड दे, वह 'ज्ञानी'। वह 'बिलीफ' उखड़ सके ऐसी नहीं है। आपकी वह 'रोंग बिलीफ' हमने उखाड़ दी है। प्रश्नकर्ता : इसे जरा विस्तार से समझाइए न कि 'बिलीफ रोंग' है और 'ज्ञानीपुरुष' बिलीफ को उखाड़ देते हैं। दादाश्री : हम क्या कहते हैं कि आत्मा अगुरु-लघु स्वभाव का है और राग-द्वेष गुरु-लघु स्वभाव के हैं। इसलिए उन दोनों में संबंध भी नहीं था और साझेदारी भी नहीं थी। ये जो आरोपित भाव हैं कि आत्मा को राग होता है और द्वेष होता है, वे व्यवहार के भाव हैं। लोग ऐसा कहते हैं कि मुझे इसके प्रति राग है। अब वास्तव में आपको पौद्गलिक आकर्षण है! क्योंकि आपको मैंने ज्ञान दिया है इसलिए आपका आत्मा अलग हो गया है, तो अब क्या रहा? पौद्गलिक आकर्षण रहा। पुद्गल में आकर्षण नामक गुण है और विकर्षण नामक गुण है। अब लोग उस आकर्षण को राग कहते हैं और विकर्षण को द्वेष कहते हैं। आपका पैर गंदगी में पड़े और घिन आए, तो उससे ज्ञान चला नहीं गया! शायद कभी ज्ञानी के चेहरे पर भी असर दिखाई दे, इसका मतलब ज्ञान चला नहीं गया। ज्ञान, ज्ञान ही है। इस पुद्गल में विकर्षण नामक गुण है, जिससे घिन आई और चेहरे पर असर हो गया! नहीं है लेना-देना आत्मा को इससे प्रश्नकर्ता : क्या वह आत्मा को स्पर्श नहीं करता? क्या वह पुद्गल तक ही सीमित रहता है? दादाश्री : आत्मा को कोई लेना-देना है ही नहीं। हम आपको
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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