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________________ २२८ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध) हमें कोई चीज़ स्पर्श नहीं करती। वह हमारा स्वरूप! आपको, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का भान हुआ यानी मोक्ष का 'वीज़ा' मिल गया और आपकी गाड़ी चल पड़ी, लेकिन वह शब्द रूप में भान हुआ है। जब वह अंत में निरालंब तक पहुँचेगा, तब वह केवलज्ञान कहलाता है। प्रश्नकर्ता : तो हमारे जो अवलंबन हैं, व्यवहार के, चीज़ों के और मन के भाव उन सभी को छोड़ना है? दादाश्री : वे तो अपने आप ही छूट जाएँगे। प्रश्नकर्ता : फिर भी हमारे भाव में से नहीं छूटता है। ऐसा लगता रहता है कि यह अच्छा है, यह बुरा है। फिर उसमें सुख उत्पन्न होता है। ऐसा लगता है कि अवलंबन का मूल कारण यही है। मतलब हमारे ये अवलंबन जाते नहीं हैं। दादाश्री : ऐसा है न, इन अवलंबनों का जितना सुख आपने लिया है, वह सब उधार पर लिया हुआ सुख है, 'लोन' पर। और 'लोन' यानी जो ‘री पे' करना पड़ता है। जब 'लोन' 'री पे' हो जाए, फिर आपको कोई झंझट नहीं रहेगा। आपको जो चीजें मिलती हैं, उन चीज़ों में से सुख नहीं मिलता। आप उनमें से जो सुख लेते हो, वह 'लोन' लेने के बराबर है। वह 'लोन' आपको ‘री पे' करना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन यह पूरा व्यवहार तो एक-दूसरे के अवलंबन से ही चलता है न? दादाश्री : हाँ, वह तो सब ऐसे ही चलता है। फिर जैसे-तैसे करके धकेलते रहते हैं, ऐसा व्यवहार है सारा। प्रश्नकर्ता : तो इन अवलंबनों को छोड़ने के लिए क्या पुरुषार्थ करना चाहिए? दादाश्री : कुछ भी नहीं छोड़ना है। इस दुनिया में कुछ भी छोड़ा जाता होगा? छोड़ना तो, सिर्फ 'रोंग बिलीफ' ही छोड़नी हैं। लेकिन वह आपसे, अपने आप से नहीं छूटेगी। क्योंकि आपने 'रोंग बिलीफ' खड़ी
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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