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________________ विषय सुख में दावे अनंत २२३ अब ऐसी आपकी बहुत दुकानें नहीं होतीं, थोड़ी ही दुकानें होती हैं। जिसकी बहुत दुकानें हों, उसे ज़्यादा पुरुषार्थ करना पड़ेगा। बाकी, जिसकी थोडी सी हों, उसे तो चोखा करके 'एक्ज़ेक्टली' कर लेना चाहिए। खाने-पीने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस विषय में हर्ज है। स्त्री विषय और पुरुष विषय, ये दोनों बैर खड़ा करनेवाले कारखाने हैं। इसलिए जैसेतैसे करके निबेड़ा लाओ। प्रश्नकर्ता : इसी को आप काम निकाल लेना कहते हैं? दादाश्री : और नहीं तो क्या? ये जो सब रोग हैं, उन्हें निकाल देना है। इनमें से मैं आपको कुछ भी करने को नहीं कहता हूँ। सिर्फ जानने को ही कहता हूँ। यह 'ज्ञान' जानने योग्य है, करने योग्य नहीं है। जिस ज्ञान को जाना, वह परिणाम में आए बगैर रहेगा ही नहीं। अत: आपको कुछ भी नहीं करना है। भगवान महावीर ने कहा था कि, 'वीतराग धर्म में करोमि, करोसि और करोति नहीं होता।' विषय से बढ़े और मिश्रचेतन के साथ व्यवहार करने जैसा है ही नहीं और करना पड़े तो अनिवार्य रूप से करना पड़ेगा। उससे तो बच ही नहीं सकते। जो संसारी है उसे तो अनिवार्य रूप से व्यवहार करना ही पडेगा। जैसे जेल में गया हुआ आदमी जेल में खुद की जगह साफ करके लीप रहा हो तो हम समझते हैं कि उसे जेल का शौक होगा, इसलिए लीप रहा होगा? नहीं, उसे जेल अच्छी तो नहीं लगती, लेकिन यहाँ पर आ गया है, अब फँस चुका है, तो यहाँ अब सोने के लिए साधन तो चाहिए न? लेकिन उसे जेल में रुचि नहीं होती। वह जगह लीपता ज़रूर है, लेकिन वहाँ उसकी इच्छा नहीं है। वहाँ उसे जेल का शौक नहीं है। उसी प्रकार इस विषय का शौक बहुत सोचकर खत्म कर देने जैसा है। विषय सबसे बड़ा रोग है। पूरा जगत् इसी कारण लटका है। सिर्फ विषय से ही बैर खड़े होते हैं और बैर से संसार चलता रहता है। सभी बैर आसक्ति में से खड़े होते हैं।
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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