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________________ विषयी-स्पंदन, मात्र जोखिम १९७ यह उपाय है। यहाँ घर पर बैठे रहें तब तक कोई बुरे विचार नहीं आ रहे थे और शादी में गए कि विषय के विचार खड़े हो गए। संयोग आ मिला कि विचार खड़े हो जाते हैं। यह 'देखतभूली' सिर्फ दिव्यचक्षु से ही टल सके, ऐसी है। दिव्यचक्षु के बिना नहीं टल सकती। प्रश्नकर्ता : यह तो संयोगों को टालने की बात हुई न? तो फिर एक स्थान पर ही बैठे रहना चाहिए? दादाश्री : नहीं, अपना विज्ञान तो अलग ही तरह का है, अपने लिए तो 'व्यवस्थित में जो हो, सो भले हो', लेकिन वहाँ पर आज्ञा में रहना चाहिए। जहाँ अंगारे हों, वहाँ आज्ञा में नहीं रहते? अंगारों को भूल से भी नहीं छूते हो न? उसी प्रकार यहाँ विषयों में भी सँभालना चाहिए कि ये अंगारे हैं, प्रकट अग्नि है। जो-जो चीजें इस जगत् में आकर्षणवाली हैं, वे सब प्रकट अग्नि है। वहाँ सावधान रहना चाहिए। प्रश्नकर्ता : उसका मतलब यह हुआ कि हम जिसे देखते हैं, वह अपना नहीं है फिर भी उसके प्रति जो भाव होता है, वह नहीं होना चाहिए, ऐसा? दादाश्री : वह अपना है ही नहीं। पुद्गल अपना हो ही नहीं सकता। यदि अपना यह पुद्गल ही अपना नहीं है, तो उसका पुद्गल अपना कैसे हो सकता है? आकर्षण, प्रकट अग्नि है। भगवान ने आकर्षण को तो मोह कहा है। मोह की जड़ ही आकर्षण है। ऐसा सब समझकर लक्ष्य में रखना चाहिए न? हमें दवाई के बारे में तो जान लेना चाहिए न कि इसकी दवाई कौन सी है? यह विज्ञान है। संपूर्ण भाव से विज्ञान है। अंगारों को क्यों नहीं छूते? वहाँ क्यों सतर्क रहते हो? क्योंकि उसका फल तुरंत ही मिल जाता है। और विषय में तो लालच होता है, इसलिए लालच से फँसता है। अंगारो को छूना अच्छा है। उसका उपाय है। उस पर कुछ भी लगाने से ठंडक
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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