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________________ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध) वह भी अहंकार है । सहज, सहज के सामने कोई त्याग भी नहीं है और अत्याग भी नहीं है। इसीलिए श्रीमद् राजचंद्रजी ने कहा है कि, 'ज्ञानी के लिए त्यागात्याग संभव नहीं है ।' त्याग भी संभव नहीं है और अत्याग भी संभव नहीं है। क्योंकि वे खुद उदयाधीन बरतते हैं। मतलब जैसे किसी गठरी को ले जाते हैं न, उसी तरह वे मुंबई जाते भी हैं और गठरी की तरह आते भी हैं वापस । १८० प्रश्नकर्ता : आपने जो वह बताया न, सहज क्षमा । दादाश्री : सहज क्षमा यानी सामनेवाला यदि उसे धौल मारे न, फिर भी जब उसकी ओर देखे तो क्षमा से भरी आँखें दिखाई देंगी हमें । प्रश्नकर्ता : ऐसा तो ज्ञान के बगैर संभव ही नहीं है । तब तो शील भी ज्ञान के बिना संभव है ही नहीं न ! दादाश्री : वह सब एक ही चीज़ है और यदि अलग करके देखा जाए तो ऐसा कह सकते हैं। प्रश्नकर्ता : सहज क्षमा । अब मैं क्षमा करता हूँ । दादाश्री : वह काम की नहीं है । बड़े आए क्षमा करनेवाले! सहज होनी चाहिए ! आप धौल लगाओ और फिर उसकी आँखें देखो तो आपको क्षमा दे रही होती हैं। तब वह सहज क्षमा कहलाती है । 'मुझे क्षमा चाहिए' ऐसा कहना नहीं पड़ता। आप धौल लगाओ तब उसकी आँखों में सँपोले नहीं खेलते! पता नहीं चलेगा कि सँपोले खेल रहे हैं, इसकी आँखों में ? आप इस इफेक्ट को क्या समझो ? हम कॉज़ेज़ को भी जानते हैं और इफेक्ट को भी जानते हैं। दोनों का ही, कॉज़ेज़ का ज्ञान है और इफेक्ट का ज्ञान, दोनों का ज्ञान है हमें। तभी सहज क्षमा रह सकती है I प्रश्नकर्ता : अब 'शील' शब्द है, उसमें मॉरेलिटी, सिन्सियारिटी के अलावा अन्य पाँच-सात गुण होने चाहिए, वे सभी बताइए ।
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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