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________________ आलोचना से ही जोखिम टले व्रतभंग के १६५ दादाश्री : वर्तन में बहुत सुंदर प्रकार से आ सके, ऐसा है! वर्तन में इतना सुंदर रह सकता है कि बात ही मत पूछो। प्रश्नकर्ता : जब ज्ञान लिया, तब पहला डेढ़ साल ग़ज़ब का गुज़रा, तब वर्तन में भी ग़ज़ब का आया था। दादाश्री : वह तो फिर नीयत बिगड़ी, नीयत नया-नया ढूँढती है फिर। मन का स्वभाव है वेराइटी ढूँढना। शुरूआत में इतना अच्छा हो गया था कि मुझसे कहता था कि यह विषय मुझे रास नहीं आएगा। मुझे सदा के लिए ब्रह्मचर्य ही ले लेना है। उसके बजाय अब उल्टी तरफ चल पड़ा प्रश्नकर्ता : तो, इसमें तो खुद की ही कमज़ोरी है न? दादाश्री : कमज़ोरी मतलब बेहद कमज़ोरी! यह तो इन्सान को मार डालती है। जब से तेरी नीयत बिगड़ी, तब से भगवान की कृपा कम होने लगी, ऐसा मुझे पता चलता है न! नीयत चोर है तो फिर खत्म हो गया! प्रश्नकर्ता : तो अब इसका उपाय क्या है ? भगवान की कृपा यदि कम होने लगे, तब फिर तो खत्म ही हो गया न? दादाश्री : तो फिर यह चोर नीयत छोड़ देनी चाहिए। उस तरफ दृष्टि ही क्यों जानी चाहिए? ये सभी मीनिंगलेस बातें हैं। यह तो तुझे दृष्टि सुधारनी चाहिए कि यों कपड़ों सहित भी आरपार दिखे यानी कि कपड़े पहने हों, फिर भी कपड़े रहित दिखाई दे। फिर चमड़ी रहित दिखाई दे, ऐसी दृष्टि विकसित करनी पड़ेगी। तब खुद की सेफसाइड हो सकेगी न? ऐसा क्यों बोल रहा हूँ? मनुष्य को मोह क्यों होता है? अच्छे कपड़े पहने देखे कि मोह हो जाता है! लेकिन हमारे जैसी आरपार दृष्टि हो जाए, फिर मोह ही उत्पन्न नहीं होगा न? प्रश्नकर्ता : बीच में थोड़ा समय ऐसा रहता था, बाद में फिर ऐसा नहीं रहा।
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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