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________________ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (उत्तरार्ध) तो वह उसे 'माँ' कह दे, ऐसे अभान ( बेसुध ) लोग है ! मेरा क्या कहना है कि आत्मसुख चखने के बाद विषयसुख की ज़रूरत ही कहाँ रही ! ९४ हमारा 'ज्ञान' क्या कहता है ? जगत् में भोगने जैसा है ही क्या ? तू बेकार ही इसके लिए प्रयत्न कर रहा है । भोगने योग्य तो आत्मा है ! प्रश्नकर्ता : उसे इन लालचों में से छूटना हो तो कैसे छूट सकता है ? I I दादाश्री : वह यदि इसका निश्चय करे तो यह सब छूट सकता है लालच से छूटना तो चाहिए ही न ! खुद के हित के लिए है न! निश्चय करने के बाद, मुक्त होने के बाद उस ओर सुख ही महसूस होगा । उसमें तो ज़्यादा सुख महसूस होगा, चैन मिलेगा बल्कि । यह तो उसे भय है कि मेरा यह सुख चला जाएगा, लेकिन इसके छूटने के बाद तो ज़्यादा सुख महसूस होगा। लालच से भयंकर आवरण जितनी भी चीज़ें ललचानेवाली हों, उन सभी को एक तरफ रख दे, उन्हें याद न करे, याद आए तो प्रतिक्रमण करे, तब वे छूट जाएँगी । बाकी शास्त्रकारों ने इसका और कोई उपाय नहीं बताया। बाकी सबका उपाय है, लालच का उपाय नहीं है । लोभ का उपाय है। लोभी व्यक्ति को तो यदि बड़ा नुकसान हो जाए न, तब लोभ चला जाता है, एकदम I से ! प्रश्नकर्ता : फिर से 'ज्ञान' लेने बैठें, तो लालच निकल जाएगा ? दादाश्री : नहीं निकलेगा । 'ज्ञानविधि' में बैठने से थोड़े ही निकल जाएगा ? वह तो, यदि खुद आज्ञा में रहने का प्रयत्न करे और निरंतर आज्ञा में ही रहना है, ऐसा तय करे और आज्ञाभंग होने पर प्रतिक्रमण करे, तब जाकर कुछ बदलेगा । इस जगत् में लड़ाई-झगड़े कहाँ होते हैं ? जहाँ आसक्ति होती है, वहीं पर। झगड़े सिर्फ कब तक होते हैं ? जब तक विषय है, सिर्फ तभी
SR No.030110
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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