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________________ विकारों से विमुक्ति की राह (खं-1-2) और इसमें तो प्रजा की उत्पत्ति में नौ बच्चे हो जाए फिर भी पलटेगा ही नहीं न! प्रश्नकर्ता : आज के विकारमय वातावरण में, घर में रहकर भी आत्मा का, भगवान का अनुभव कैसे हो सकता है? दादाश्री : घर में रहकर मतलब घर आपत्ति उठाता है? प्रश्नकर्ता : वातावरण विकारी है। दादाश्री : हाँ, लेकिन कहाँ पर विकारी नहीं है? जहाँ मन है, उस जगह पर विकारी वातावरण होता ही है। आप जहाँ जाओ, वहाँ मन तो साथ में रहेगा ही न? गुफाओं में जाने से तो घर अच्छा है। वहाँ गुफाओं में नई तरह के विकार खड़े होंगे। उससे तो ये पुराने विकार अच्छे, पुराने तो बूढ़े हो चुके होते हैं। वे विकार मर जाएँगे कभी न कभी। जबकि ये नए विकार नहीं मरेंगे। प्रश्नकर्ता : क्या घर में रहकर मन के विकार छूट सकते दादाश्री : हाँ, सबकुछ छूट ही जाता है न! घर में रहकर तो क्या, कहीं भी रहकर छूट सकता है, यदि 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो। 'ज्ञानीपुरुष' के मिलने पर भी यदि विकार नहीं छुटें तो वे ज्ञानी हैं ही नहीं। आप ज्ञानी से कहना, कि 'आप कैसे मिले हमें कि हमें यह विकार उत्पन्न हए?' लेकिन लोग विनयी हैं न, इसलिए ऐसा नहीं कहते बेचारे। अंदर-अंदर परेशान होते रहते हैं, फिर भी नहीं कहते। नहीं समझा जगत् ने, स्वरूप वासना का प्रश्नकर्ता : कामवासना का सुख क्षणिक है, ऐसा समझने के बावजूद भी कभी कभार उसकी प्रबल इच्छा होने का कारण क्या है? और उस पर कैसे अंकुश लगाया जा सकता है? दादाश्री : कामवासना का स्वरूप जगत् ने जाना ही नहीं।
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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