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________________ विश्लेषण, विषय के स्वरूप का (खं-1-1) होंगे, एकाध बेटाकि एक स्त्री की थी। बुद्धिही खड़ा किया चाहिए। शादी करता है, वह भी इसलिए कि आधार ढूँढता है। इसीलिए शादी करता है न। इंसान निराधार रह ही नहीं सकता न! निरालंब नहीं रह सकता न! ज्ञानीपुरुष के अलावा अन्य कोई निरालंब रह ही नहीं सकता, कुछ न कुछ अवलंबन ढूँढता ही है! यह मकड़ी जाला बुनती है, फिर खुद ही उसमें फँस जाती है। उसी तरह यह संसार का जाल भी खुद ने ही खड़ा किया है। पिछले जन्म में खुद ने माँग की थी। बुद्धि के आशय में टेंडर भरा था कि एक स्त्री तो चाहिए ही। दो-तीन कमरे होंगे, एकाध बेटा और एकाध बेटी और नौकरी, इतना ही चाहिए। उसके बदले में वाइफ तो दी सो दी, लेकिन सास-ससुर, साला-साली, मौसेरी सास, चचेरी सास, फूफी सास, ममेरी सास... अरे फँसाव, फँसाव! इतना सारा फँसाव साथ में आएगा, यदि ऐसा पता होता तो ऐसी माँग ही नहीं करते! टेंडर तो भरा था सिर्फ वाइफ का, तो फिर यह सब क्यों दिया? तब कुदरत कहती है, 'भाई, वह अकेला तो नहीं दे सकते, ममेरी सास, फूफी सास वह सब देना पड़ता है। आपको उसके बिना अच्छा नहीं लगेगा। यह तो जब पूरा लंगर होगा, तभी असली मज़ा आएगा!' एक इतना सा लेने जाएँ, उसके साथ तो कितने बंधन, कितनी सारी परवशताएँ। वह परवशता फिर सहन नहीं होती। प्रश्नकर्ता : ये मन, वचन, काया के लफड़े ही अच्छे नहीं लगते न अब तो! दादाश्री : इसमें तो छ: भागीदार है। शादी की तो उसमें और छ: की भागीदारी, मतलब बारह भागीदारों का कोरेशन खड़ा हो गया ऊपर से। छ: के बीच तो कितने लड़ाई-झगड़े चल ही रहे थे, वहाँ फिर बारह की लड़ाई खड़ी हो जाती है। फिर हर एक संतान के साथ छः नये भागीदार जुड़ते जाते हैं। यानी कितना फँसाव खड़ा हो जाता है!
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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