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________________ स्पर्श सुख की भ्रामक मान्यता (खं-2-८) २१५ से लाएँगे? या फिर सत्संग की बात करेंगे तो मन वापस नये विचार दिखाएगा। ___ पहले जिन पर्यायों का खूब वेदन किया हो, अभी वे अधिक आते हैं तब चित्त वहीं चिपका रहता है। जैसे-जैसे वह चिपकाव, पकड़ धुलती जाएगी, वैसे-वैसे फिर चित्त वहाँ पर ज़्यादा नहीं रहेगा। चिपकेगा और अलग हो जाएगा। अटकण आए न तो, वहीं चिपका रहता है। तब हमें क्या कहना चाहिए? तुझे जितने नाच करने हों, उतने कर। अब 'तू ज्ञेय और मैं ज्ञाता' इतना कहते ही वह मुँह फेर देगा। वह नाचेंगे तो ज़रूर, लेकिन उनका टाइम होगा उतनी ही देर नाचेंगे। फिर चले जाएँगे। आत्मा के सिवा इस जगत् में और कुछ भी अच्छा नहीं है। यह तो, पहले जिससे परिचय किया हुआ हो, पहले का वह परिचय अभी गड़बड़ करवाता है। चित्त अधिक से अधिक किस में फँसता है? विषय में! और जितना चित्त फँसा, उतना ही ऐश्चर्य टूट गया। ऐश्चर्य टूटा कि जानवर बन गया। अतः विषय ऐसी चीज़ है कि उसी से सारा जानवरपन आया है। मनुष्य में से जानवरपन, विषय के कारण ही आया है। फिर भी हम क्या कहते हैं कि यह तो पहले का भरा हुआ माल है, वह निकलेगा तो सही लेकिन अगर वापस नये सिरे से संग्रह न करो तो वह उत्तम कहलाएगा।
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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