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________________ स्पर्श सुख की भ्रामक मान्यता (खं-2-८) होना चाहिए। ये सब रोंग बिलीफें हैं। जगत् को पता ही नहीं है कि यह क्या है ! बिलीफें ही रोंग हैं। सौ बार रोंग बिलीफ को सही मानी हों तो सौ बार उन्हें तोड़ना पड़ेगा, आठ सौ बार किया हो तो आठसौ बार और दस बार किया हो तो दस बार । दोस्तों के साथ घूम रहे हों और वे कहें कि 'ओहोहो कैसे हैं, कैसे हैं!' तब हम भी अंदर बोल उठते हैं कि 'कैसे हैं !' ऐसे करते करते स्त्री को भोग लिया। १९५ मन में जो विचार आते हैं, वे विचार अपने आप ही आते रहते हैं, तो उन्हें हमें प्रतिक्रमण से धो देना है। फिर वाणी में ऐसा नहीं बोलना है कि, विषयों का सेवन करना बहुत अच्छा है और वर्तन में भी ऐसा नहीं रखना है। स्त्रियों के सामने आँखें नहीं गड़ानी हैं। स्त्रियों को देखना मत, छूना मत। स्त्रियों को छू लिया हो तो भी मन में प्रतिक्रमण हो जाना चाहिए, कि 'अरेरे, इसे कहाँ छू लिया!' क्योंकि स्पर्श से विषय के सभी तरह के असर होते हैं। प्रश्नकर्ता : उसे तिरस्कार करना नहीं कहा जाएगा ? दादाश्री : उसे तिरस्कार नहीं कहेंगे ? प्रतिक्रमण में तो हम उनके आत्मा से कहते हैं कि 'हमारी गलती हो गई, फिर से ऐसी गलती नहीं हो ऐसी शक्ति दीजिए। उसी के आत्मा से ऐसा कहना कि मुझे शक्तियाँ दीजिए । जहाँ अपनी गलती हुई हो, वहीं पर शक्ति माँगना तो वह शक्ति मिलती रहेगी । ' प्रश्नकर्ता : कोई स्त्री हमारे पास आकर बैठे तो उससे हम कह सकते हैं कि 'बहन, आप यहाँ से उठकर वहाँ बैठो ? ' दादाश्री : नहीं, हम ऐसा क्यों कहें ? अपने पास बैठे तो क्या अपनी गोद में बैठ जाती है ? प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, यहाँ अपने पास। दादाश्री : पास में बैठे तो हमें क्या ? अपनी दृष्टि अलग,
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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