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________________ पछतावे सहित प्रतिक्रमण (खं-2-७) १८५ दादाश्री : क्रमिक मार्ग में वह ढीलापन कहलाता है। उसके लिए तुम्हें उपाय करना पड़ता है। इसमें (अक्रम में) तुम्हारे लिए यह ढीलापन नहीं कहलाता। इसमें तुम्हें जागृति ही रखनी है। हमने जो आत्मा दिया है, वह जागृति ही है। प्रश्नकर्ता : जागृति नहीं रहे, तभी राग होता है न? दादाश्री : नहीं ऐसा नहीं है। अब तुम्हें राग होता ही नहीं है। यह जो होता है, वह आकर्षण है। __ प्रश्नकर्ता : वह कमज़ोरी नहीं मानी जाएगी? दादाश्री : नहीं, कमज़ोरी नहीं मानी जाएगी। उसका और आत्मा का कोई लेना-देना नहीं है। सिर्फ इतना ही है कि वह तुम्हें खुद का सुख नहीं आने देगा। इसलिए एक-दो जन्म अधिक करवाएगा। उसका भी उपाय है। अपने यहाँ ये सब लोग जो सामायिक करते हैं, उस सामायिक में उस विषय को रखकर खुद ध्यान करे तो वह विषय विलीन होता जाता है, खत्म हो जाता है। जो-जो आपको विलीन कर देना हो, उसे यहाँ पर विलीन किया जा सकता है। प्रश्नकर्ता : ऐसा कुछ हो, तब वह काम का है न! दादाश्री : है। यहाँ सभी कुछ है। यहाँ (सामायिक में) तुम्हें सभी कुछ बताएगा। तुम्हें किसी जगह पर जीभ का स्वाद बाधक हो, तो उसी को सामायिक में रखो। और जैसा बताएँ उस अनुसार उसे देखते रहो। सिर्फ देखने से ही वे सब गाँठें विलय हो जाएँगी। हे गाँठों! हम नहीं या तुम नहीं विचार मन में से आते हैं और मन गाँठों से बना हुआ है। जिसके विचार अधिक आते हैं, वे गाँठे बड़ी होती हैं! वस्तुस्थिति में विषय की जो गाँठ है, वह जैसे पिन को लोहचुंबक आकर्षित करता है, वैसे ही इसमें आकर्षण खड़ा होता है। लेकिन हमें यदि
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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