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________________ १७६ समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य (पू) प्रश्नकर्ता : वह कभी-कभी ही। यानी पहले बहुत आते थे पूरे दिन! वे बंद हो गए। दादाश्री : और अभी तो कुछ और टाइम बीतने पर तो वह दिशा ही बंद हो जाएगी। जहाँ पर जिस दिशा में हमें जाना था अपनी वह दिशा तय हो जाए, तो उसके बाद पिछली सारी अड़चनें आनी बंद हो जाएँगी और फिर वह दिशा ही बंद हो जाएगी। फिर नहीं आएगा। फिर ऐसा उत्पन्न हो जाएगा कि हमारी तरह रहा जा सकेगा। प्रश्नकर्ता : आज कल, यह थ्री विज़न अच्छा रहता है। दादाश्री : थ्री विज़न तो बहुत काम निकाल देता है। दादा का निदिध्यासन रहता है न? उस निदिध्यासन से सभी फल मिलते हैं। निदिध्यासन रहे तो इच्छा ही नहीं होगी किसी चीज़ की। भीख ही नहीं रहेगी। विषय का विचार आए तब भी कहना, 'मैं नहीं हूँ' यह अलग है, उसे डाँटना पड़ेगा। बल्कि तुम्हें चंद्रेश को मार्गदर्शन देना है कि 'ऐसे कर, ऐसे काम कर, ऐसे काम कर।' नहीं कर रहा हो तो ज़रा कहना पड़ेगा कि 'इन सब के साथ नहीं चलोगे तो, तुम्हारी क्या दशा होगी?' चलानेवाला तो चाहिए या नहीं चाहिए? प्रश्नकर्ता : चाहिए। दादाश्री : यानी यह ज्ञान दिया है, तो शुद्धात्मा रहेगा ही। अब इसमें चूकना मत। अब जो कुछ भी आए, वह सबकुछ चंद्रेश का है। इसलिए चंद्रेश के साथ तुझे किच-किच करते रहना। 'तू तो पहले से ही ऐसा है, मुझे कोई लेना-देना नहीं।' तू ऐसा कह देना। 'देख, सीधे चलना, सीधे चलना हो तो चल, वर्ना मैं तो फिर बिल्कुल ही तिरस्कार कर दूंगा' कहना। किंचित्मात्र भी दुःख, वह मेरा स्वरूप नहीं है। किंचित्मात्र भी भीतर उपाधि हो तो वह स्वरूप मेरा नहीं है। दादा ने मुझे जो दिया है,
SR No.030109
Book TitleSamaz se Prapta Bramhacharya Purvardh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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