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________________ द्रव्यकर्म कुछ वर्षों के लिए, पचास-साठ वर्षों के लिए होता है। वे सिर्फ चश्मे हैं, वह अज्ञानता नहीं है। जबकि इन सभी में मुख्य अज्ञान है, वह परदा है। ये चश्मे लगाता कौन है? अहंकार। इस अहंकार का मोक्ष करना है, आत्मा का नहीं। आत्मा तो मोक्ष स्वरूप ही है। ज्ञान से पहले जगत् को जिस स्वरूप में देखते हैं, वह 'दृष्टि' द्रव्यकर्म के आधार पर है। उस दृष्टि से उल्टे चले हैं। द्रव्यकर्मवाली 'दृष्टि' चश्मा है। दादाश्री जब ज्ञान देते हैं, तब मूलभूत उल्टी दृष्टि निकल जाती है। वह मूलभूत दृष्टि उस तरफ द्रव्यकर्म में चली जाती है और स्वरूप में चली जाती है। दादाश्री मूल दृष्टि का गुह्य रहस्य बस इतने में ही दे देते हैं कि, 'कोई गालियाँ दे तो वह नोकर्म में आता है लेकिन उसमें अगर आपकी (मूल) दृष्टि बदल जाए तो उसमें से द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं।' जो रौद्रभाव उत्पन्न होते हैं, वे भावकर्म हैं और रौद्रभाव उत्पन्न होते समय मूल ‘मशीनरी, यह लाइट (दब जाती/कम हो जाती) दिखती है, दृष्टि बिगड़ना, वह द्रव्यकर्म है।' यह दृष्टि तो अनुभव की चीज़ है। शब्दों में नहीं समा सकती। महात्माओं की, 'आपकी' नोकर्म के समय 'दृष्टि' नहीं बिगड़ती। भाव उत्पन्न होने पर भी दृष्टि नहीं बिगड़ती क्योंकि अब उसके पीछे हिंसक भाव नहीं रहा। अर्थात् दृष्टि नहीं बिगड़े तो चार्ज नहीं होता। फिर तो जो भावकर्म होते हैं, वे भी डिस्चार्ज में आते हैं। भावकर्म और मूल दृष्टि बिगड़ जाएँ, वे दोनों एक हो जाएँ, तभी कर्म चार्ज होते हैं। सम्यक दृष्टि होने के बाद फिर भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म अलग-अलग हो जाते हैं और फिर छूट जाते हैं। फिर अलग ही रहा करते हैं उसके बाद फिर कर्म बंधते ही नहीं। दो तत्वों के साथ में रहने से तीसरा व्यतिरेक गुण उत्पन्न होता है, उसी से चश्मे बनते हैं। 61
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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