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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) हैं लेकिन अभी तक वह सिर्फ हमारी समझ में आया है, ज्ञान में नहीं आया है। ज्ञान में आ जाएगा तो सबकुछ दिखने लगेगा । ज्ञायक भाव से परिणतियाँ शुद्ध प्रश्नकर्ता : प्रकाश ऐसा चाहिए कि किसी भी तरह के प्रश्न उपस्थित हों लेकिन जहाँ नज़र के सामने प्रकाश आया कि सोल्युशन आ जाए। ४२२ दादाश्री : हाँ, वही प्रकाश दिया है आपको । और मुझ से मिलने के बाद कौन-कौन से सोल्युशन नहीं आए ? वह भी बताओ। प्रश्नकर्ता : मान लीजिए कि अभी तो हमारी जो परिणति है उस परिणाम में यदि विशुद्धि हो तब तो कोई सवाल ही नहीं है, लेकिन परिणाम में विशुद्धि लाने के लिए क्या हो जाना चाहिए कि जो प्रकाश है उसके लक्ष (जागृति) से ही उसकी विशुद्धि आए, वह मलिनता दूर हो जाए । उसके बाद परिणति और तत्व एक हो जाएँ। दादाश्री : आप देखते हो तो परिणतियाँ शुद्ध हो ही जाती हैं । आपने वहाँ पर देखा न? आपका अगर ज्ञायक स्वभाव है, आप अपने खुद के ज्ञायक स्वभाव में रहो तो अशुद्ध परिणति शुद्ध होकर चली जाएगी। अपनी परिणति अपने पास शुद्ध होकर रहेगी और हम भी शुद्ध होकर रहेंगे । निरंतर ज्ञायकता वही परमात्मा जिनका खुद का ज्ञायक स्वभाव नहीं छूटे न, तो वे परमात्मा हो गए। जितने समय तक अंदर खराब विचार आ रहे हों और उस समय अगर उसके ज्ञायक रहें तो जानना कि थोड़े बहुत परमात्मा हो गए। जिन्हें निरंतर ज्ञायकपना रहे वे संपूर्ण परमात्मा कहलाते हैं। शुद्धात्मा का ज्ञायक स्वभाव है, उस स्वभाव का फल क्या है? परमानंद ! ! !
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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