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________________ ४१६ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : ज्ञाता और ज्ञायक में कोई फर्क है क्या? दादाश्री : जब सिर्फ जाननेवाला ही काम करता रहता है, तब वह ज्ञायक कहलाता है। वर्ना अगर वह काम नहीं कर रहा हो तब ज्ञाता तो कहलाता ही है। काम नहीं कर रहा हो, तब भी ज्ञाता तो कहलाता है। ज्ञाता, वह ज्ञाता है और ज्ञेय, वह ज्ञेय है और ज्ञायक जब सत्ता में रहता है तब ज्ञायक कहलाता है। सत्ता अर्थात् जब काम कर रहा हो, उस समय। ऐसा क्यों पूछना पड़ा? प्रश्नकर्ता : नहीं, मैंने एक जगह ऐसा पढ़ा था कि 'मैं ज्ञायक हूँ'। दादाश्री : घर पर चंदूभाई कहलाता है और ऑफिस में जाए तब कहते हैं, 'मेजिस्ट्रेट आ गए!' नहीं कहते? तो क्या घर पर वह सेठ नहीं है? तो कहते हैं, नहीं, 'जहाँ-जहाँ जो शोभायमान हो, वही। हम हमेशा के लिए ज्ञाता-दृष्टा तो हैं ही! ज्ञायक भाव, वही अंतिम भाव है प्रश्नकर्ता : ज्ञायक और उपयोग, तो वह जो ज्ञायक भाव है वही उपयोग नहीं है? दादाश्री : हाँ, वही उपयोग है लेकिन ज्ञायक भाव रहना चाहिए। ज्ञायक भाव आ गया तो वही उपयोग है। उपयोग अन्य कुछ नहीं है और ज्ञायक भाव नहीं रहा तो उसे कहते हैं कि 'उपयोग गया।' प्रश्नकर्ता : तो ज्ञायक और जिज्ञासु में क्या फर्क है? दादाश्री : बहुत है। ज्ञायक और जिज्ञासु में कोई संबंध ही नहीं है। अर्थात् जिज्ञासु तो न जाने कहाँ खड़ा है? ज्ञायक तो खुद परमात्मा बन गया। जिज्ञासु को तो गुरु बनाने पड़ेंगे, ढूँढते रहना पड़ेगा। जिज्ञासा उत्पन्न हुई है तो वह पुरुषार्थी बना है लेकिन ज्ञायक तो कहाँ है? ज्ञायक तो खुद ही भगवान है। जितने समय आप ज्ञायक रहते हो उतने समय तक आप हो भगवान। उतने समय तक केवलज्ञान के अंश इकट्ठे होते जाते हैं।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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