SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४१५ मन तो फिल्म दिखाता है, उसका हमें ज्ञाता-दृष्टा रहना है। सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम संयोगों के ज्ञाता-दृष्टा रहना है। प्रश्नकर्ता : दादा उसका निकाल, वह डिस्चार्ज जल्दी नहीं हो सकता? दादाश्री : वह फिल्म जल्दी पूरी हो जाएगी तो क्या होगा? देखनेवाले को घर जाना पड़ेगा। इसलिए कहते हैं कि धीरे-धीरे होने दो, जल्दबाज़ी मत करना। प्रश्नकर्ता : दादा, एक तरह से आपकी बात चाहे ठीक ही है लेकिन अगर आपके जैसा देखें, जो अंदर का आनंद है, वह अगर ज़्यादा दिख जाए तो ज्ञाता-दृष्टा पद एकदम से शुरू हो जाएगा। दादाश्री : हाँ, हाँ। लेकिन जब हम आँखों से नहीं देख पाएँ तो चश्मे लेकर घूमते हैं कि दादा हैं न साथ में। दादा अपना चश्मा है और अब इसके ज्ञाता-दृष्टा हो गए हैं हम, 'चंदूभाई क्या कर रहे हैं और क्या नहीं' यही एक काम रहा है न, अब आपके पास! और कुछ नहीं है न? __ तो जब यह फिल्म पूरी हो जाएगी तब जो इन्टरिम गवर्मेन्ट है, वह फुल गवर्मेन्ट बन जाएगी। जब तक फिल्म देखते हैं तब तक इन्टरिम गवर्मेन्ट है। सिर्फ देखने और जाननेवाला कहलाता है ज्ञायक 'यह माला पहनी है,' लोग उसे देखते हैं। उन देखनेवालों को मन में ऐसा लगता है कि 'इसने यह क्या पहना है?' और हम भी हँसते हैं कि 'ओहोहो, इसने क्या पहना है?' हमें हँसना नहीं आएगा कि ये अंबालाल भाई क्या पहनकर घूम रहे हैं? खुद खुद का जानकार रहे, तो उसे दूसरे जानकार की ज़रूरत नहीं रहेगी। प्रश्नकर्ता : सही सूत्र है। दादाश्री : हाँ, इतना ही बहुत है। और बहुत आगे जाने की ज़रूरत नहीं है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy