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________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४१३ स्वभाव है। जाननेवाला एक ही है। जानने की चीजें अनंत हैं। अन्य को अन्य जाने, वह मुक्त है। अन्य को अन्य जाने और स्व को स्व जाने वह महा मुक्त ! जब अन्य को अन्य जाने, उस समय मन-वचन-काया का योग यदि कंपायमान नहीं हो तो वह स्व को स्व जान सकता है और यदि कंपायमान हो जाए तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि 'स्व' को 'स्व' जाना प्रश्नकर्ता : 'जब अन्य को अन्य जाने, उस समय यदि मन-वचनकाया का योग कंपायमान नहीं हो तो वह 'स्व' को 'स्व' जानता है।' यह समझाइए न! इसमें दादा क्या कहना चाहते हैं? दादाश्री : स्व अर्थात् आत्मा और पर अर्थात् यह पुद्गल। वह अन्य चीज़ है। उसे जब अन्य जानेंगे उस समय जो मन-वचन-काया जो कि अंदर पुद्गल में ही हैं, वे कंपायमान (कंपित) नहीं होते तो ऐसा कहा जाएगा कि 'स्व' पूर्ण हो गया। कंपायमान हो जाएँ तो 'स्व' में नहीं आया है। अर्थात् कंपायमान को जाननेवाला यदि कच्चा होगा तो कंपायमान हुए बगैर रहेगा नहीं और यदि सच्चा होगा तो कंपायमान नहीं होगा। इसलिए अपने ये महात्मा कंपायमान नहीं होते क्योंकि अक्रम विज्ञान से बैठ चुके हैं, अर्थात् लिफ्ट में बैठ चुके हैं। दृश्य और दृष्टा, दोनों सदा भिन्न देखने व जानने से किसी भी असर का स्पर्श नहीं होता। कोई अपमान दे और उसके प्रति अभाव हो जाए, उस अभाव को जो देखे, वह महावीर है। कोई मान दे और अच्छा भाव हो जाए और उस भाव को जो देखता है, वह महावीर है। आप तो कहते हो कि 'ये भाव और अभाव होने ही नहीं चाहिए।' वह बात योग्य नहीं है। देखनेवाला और देखने की चीज़ कभी एक नहीं हो सकते। अगर एक हो जाएँ तो आत्मा नहीं कहलाएगा कभी भी। प्रश्नकर्ता : तो इसका मतलब यह है कि दो काम एट ए टाइम होने चाहिए?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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