SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१२ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : वह बाद में समझ में आएगा। अभी एकदम से जल्दबाज़ी नहीं करनी है। प्रश्नकर्ता : वास्तविक ज्ञेय में द्रव्य-गुण-पर्याय की बातें आती हैं? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : ज्ञेय में तन्मय हो गए, ज्ञेयों को जाननेवाले नहीं रहे तो वे फिर विभाव में ही रचे-बसे रहे, ऐसा नहीं हो जाएगा? दादाश्री : नहीं, नहीं, नहीं। यह ज्ञान ही ऐसा है कि विभाव में रचाबसा नहीं रह सकता क्योंकि देखनेवाला हाज़िर रहता है। देखनेवाला और जाननेवाला हाज़िर रहता है क्योंकि विभाविक नहीं है वह। खुद स्वभाविक है। यह विज्ञान ही ऐसा है कि विभाव उत्पन्न ही नहीं होता। विज्ञान तो, एक्ज़ेक्ट जुदा हो गया है, ऐसा विज्ञान है। उसे कुछ भी नहीं हो सकता। कुछ भी स्पर्श नहीं करता, कुछ भी बाधा नहीं डाल सकता, दूसरी चीज़ों का कुछ ज़ोर आ जाता है। वह कितने दिनों तक रह सकता है? वह टेम्परेरी है और हम परमानेन्ट है। ज़ोर लगानेवाले कौन हैं? टेम्परेरी हैं। तुझे जो करना हो भाई वह कर न! हम परमानेन्ट हैं। टेम्परेरी परमानेन्ट का क्या बिगाड़ सकता है? देखने जाएँ तो पूरे शरीर में परमानेन्ट सिर्फ हम खुद ही हैं। प्रश्नकर्ता : एक पल के लिए उसका चलित भाव आ जाता है। फिर तुरंत ही वापस सेट हो जाता है। दादाश्री : हाँ, बहत समय का अभ्यास है न, इसलिए ज़रा स्लिप हो जाते हैं। फिर समझ जाना है कि 'इसमें और कोई नहीं है, हम खुद ही हैं।' बात ऐसी ज़रूर है कि इंसान स्लिप हो जाए क्योंकि बहुत समय से यही की यही तोड़-फोड़, तोड़-फोड़ है सारी। यह तो इस विज्ञान ने रोककर रखा है। यह विज्ञान है न, सभी में सफलता देता है। संपूर्ण सफलता देता है। स्व को स्व जाने वह महामुक्त जानते रहना, वह अपना स्वभाव है। बिगड़ते रहना, वह पुद्गल का
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy