SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४०९ प्रश्नकर्ता : 'केवल निज स्वभाव का अखंड बरते ज्ञान ।' तो आपने जैसा कहा है, अब आत्मा में ही पूरे दिन रहा करते हैं, तो उसी को 'अखंड ज्ञान बरतें' कहा जाता है? दादाश्री : वे कुछ और कहना चाहते हैं। केवल निज स्वभाव का अखंड बरते ज्ञान' अर्थात् निरंतर ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव, उसके अलावा अन्य कुछ भी न रहता है, उसके लिए कहना चाहते हैं। अभी तो अपने से दूर है ज़रा। वह पद दूर है। विनाशी जग के साथ आत्म संबंध प्रश्नकर्ता : आत्मा के बारे में समझने के बाद, इस जगत् की विनाशी चीज़ों के साथ आत्मा का क्या संबंध है? दादाश्री : सिनेमा देखने गए हो आप कभी? तो हमारा सिनेमा के साथ क्या संबंध है? वह जो होता है, वहाँ पर कपड़े का बड़ा पर्दा होता है, उस पर्दे के साथ हमारा कोई संबंध है? क्या संबंध है अपना? प्रश्नकर्ता : सिर्फ देखने का। दादाश्री : बस तो फिर, उसी तरह यह सब भी सिर्फ देखना ही है। और कोई संबंध नहीं है। नहीं देखेंगे तो आत्मा गायब हो जाएगा। इसलिए देखना ही पड़ता है। ज्ञेय नहीं होंगे तो ज्ञाता नहीं रहेगा। ज्ञेय की उपस्थिति ही ज्ञाता की उपस्थिति सूचित करती है। सिनेमा चले, तभी तक देखनेवाले की क़ीमत है, वर्ना अगर सिनेमा बंद हो तो देखनेवाले की क़ीमत नहीं है। ऐसे रहता है ज्ञाता-दृष्टा का लिंक प्रश्नकर्ता : आज नित्यक्रम में बैठा था तो तब सात मिनट तक मेरा लक्ष चूक गया था, वीतराग के ध्यान की तरफ का! टूट जाने के बाद मुझे खयाल आ गया कि 'मैं अनंत शक्तिवाला हूँ' और 'मैं अनंत शक्तिवाला' शब्द दस मिनट तब बोला और....
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy