SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) रह सकता है? तब मैंने कहा कि 'जो वीतराग हो वही संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा रह सकता है, वर्ना नहीं रह सकता।' तब इनका कहना ऐसा था कि 'नहीं, वीतराग नहीं हों, फिर भी ज्ञाता-दृष्टा रहा जा सकता है।' दादाश्री : नहीं, वीतराग का अर्थ ऐसा नहीं है। वीतराग अर्थात्, जितने समय तक ज्ञाता-दृष्टा रहे, उतने समय तक वह वीतराग रहा। और संपूर्ण रहे तो संपूर्ण वीतराग, बस। अर्थात् ज्ञाता-दृष्टापना, वही वीतरागपना है। वीतराग अर्थात् वह थोड़ी देर, पंद्रह मिनट के लिए भी अगर ज्ञातादृष्टा रहा तो उतने समय तक वीतराग। प्रश्नकर्ता : संपूर्ण रूप से राग-द्वेष चले जाएँ तो अधिक ज्ञातादृष्टापना आएगा न? वह ठीक है या नहीं? दादाश्री : राग-द्वेष तो गए हुए ही हैं, उन्हें निकालना कहाँ हैं? प्रश्नकर्ता : हाँ, वे तो ज्ञान लेने के बाद गए। दादाश्री : अहंकार गया इसका मतलब ही है कि राग-द्वेष गए। अब जो राग-द्वेष हैं, वे डिस्चार्ज राग-द्वेष हैं। अब चार्ज राग-द्वेष तो मानो चले ही गए हैं। फिर राग-द्वेष जाने का सवाल ही कहाँ रहता है? अब जितना आपका उपयोग शुद्ध रहेगा उतना ही आप ज्ञाता-दृष्टा और अगर उपयोग शुद्ध न रहे और इसी में उलझा रहेगा तो उतना वह ज्ञाता-दृष्टा नहीं रह पाएगा। अंतःकरण को जाने और देखे, वह उच्च बात है अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा का सब से बड़ा अर्थ वह है। अंदर खुद क्या कर रहा है, मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार, ये सब क्या कर रहे हैं, उन सब को सर्वस्व प्रकार से जाने और देखे, बस। और कुछ नहीं। आप आत्मा ही हो और ज्ञाता-दृष्टा हो। यह हो या वह हो, आपका ज्ञाता-दृष्टापन यदि ज़रा सा भी छोड़ा तो अंदर परेशानी होगी। आप जो हो वह हो! यह तो जो ज्ञान दिया है, 'हम शुद्धात्मा हैं' वह ज्ञान तो वैसे का वैसा ही रहना चाहिए।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy