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________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ३७५ प्रश्नकर्ता : यह इन्द्रिय से जाना और अतीन्द्रिय से जाना, अनुभव से इन दोनों का फर्क कैसे पता चलेगा? दादाश्री : इन्द्रिय को जानता है। जो इन्द्रियों से जाना हुआ है, उसे भी अतीन्द्रिय जानता है। अतः यह ज्ञेय है। चंदूभाई पूरे ही ज्ञेय हैं। चंदूभाई क्या करते हैं, उसे जो जानें वह अतीन्द्रिय ज्ञान कहलाता है। अतः अपना ज्ञान क्या कहता है कि आप शुद्धात्मा हो, ये चंदूभाई क्या कर रहे हैं, उसे आपको देखते रहना है। प्रश्नकर्ता : उसका अर्थ ऐसा हुआ कि ये चंदूभाई क्या कर रहे हैं, उसे मैं शुद्धात्मा में रहकर सतत ज्ञेय के रूप में जानता रहूँ, देखता रहूँ तो वह शुद्ध उपयोग कहलाएगा? दादाश्री : बस। तो अलग ही है। फिर भले ही चंदूभाई कुछ भी कर रहे हों न लेकिन यदि देखता रहे और जानता रहे और सही-गलत भाव नहीं करे, सिर्फ जानता ही रहे तो हर्ज नहीं है। मुक्त ही है। प्रश्नकर्ता : अब चंदभाई जो करते हैं, वह इन्द्रिय से जो अनुभव करते हैं, उसे अतीन्द्रिय से देखना है। दादाश्री : उसमें परेशानी नहीं है न! क्या परेशानी है? ये खाते समय अंदर एकाकार हो गया है, उसे भी हमें जानना है, बस। आज खाते समय एकाकर नहीं हुआ, उसे भी हमें जानना है। यह तो विज्ञान है। इसमें यह इतना सरल मार्ग है लेकिन यदि समझ ले तो बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है! इन्द्रिय ज्ञानपना कब कहलाता है कि चंदूभाई बनकर देखे, तब। शुद्धात्मा बनकर चंदूभाई को देखे तो इन्द्रियज्ञान नहीं कहलाएगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन चंदूभाई बनकर देखे..... दादाश्री : वह काम ही नहीं आएगा न! प्रश्नकर्ता : उसका पता कैसे चलेगा?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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