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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : आत्मा खुद इन्द्रियों की सहायता के बिना देख और जान सके, ऐसी स्थिति कब पैदा होगी ? ३७४ दादाश्री : अभी जान सकता है। अभी मन के जो मनपसंद विषय हैं, उन सभी को देख सकता है। अभी चित्त किस तरफ गया, उसे देख सकता है। मन के विषय कौन-कौन से हैं, उन सब को देख सकता है। वहीं से यह सब शुरू हो गया न! आर्तध्यान उत्पन्न हुआ या नहीं, रौद्रध्यान उत्पन्न हुआ या नहीं, वह सब खुद के ज्ञाता - ज्ञेयपद में आने ही लगा है। इस श्रेणी की शुरुआत की है, इसीलिए दिनोंदिन क्रमशः बढ़ता ही जाता है । उसे बाहर के लोग नहीं देख सकते । लेकिन ज्ञाता-दृष्टा का अर्थ लोग अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं। और क्रमिक मार्ग में सभी लोग ज्ञाता - दृष्टा बन बैठे हैं ! मुझ से कहते हैं, 'हम ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं।' मैंने कहा, 'मुझे समझाओ तो सही कि आप किस तरह से ज्ञाता-दृष्टा हो?' 'बस, देखना और जानना, देखना और जानना।' मैंने कहा, ‘आँखों ने देखा, उसे देखना नहीं कहते और बुद्धि से जाना, उसे जानना नहीं कहते ।' तो वे उलझन में पड़ गए कि अभी तक क्या अलग था? मैंने कहा, 'सम्यक् दर्शन से देखना और सम्यक् ज्ञान से जानना, वह है देखना और जानना ।' अर्थात् आपके अंदर मनबुद्धि क्या कर रहे हैं, उन सब को देखो - जानो, उसे दर्शन से देखना है । वह आँखों से नहीं दिखता। अर्थात् दर्शन - ज्ञान आप सभी में हो सकता है लेकिन बाहर (जिन्होंने ज्ञान नहीं लिया है) उनमें तो नहीं हो सकता। वे तो मन में मान बैठे हैं । इन्द्रियों से देखना, वह दर्शन नहीं है, वह तो सापेक्ष दर्शन है जबकि प्रज्ञा से देखना, वह स्वभाविक दर्शन है। सम्यक् दर्शन अर्थात् स्वाभाविक दर्शन । ऑफिस में कुर्सी-टेबल देखता रहता है तू? यह बाहर का सबकुछ इन्द्रियज्ञान से दिखता है । जानते हैं, वह भी इन्द्रियज्ञान से है । अंदर जो है, उसका ज्ञाता-दृष्टा रहना है। व्यवहार में जानपना तो इन्द्रिय जानपना कहलाता है। अतीन्द्रिय जानपने की आवश्यकता है । इन्द्रिय जानपना है, वह सब नहीं चलेगा।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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