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________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक है। पहले तो चल भी रहा था खुद ही और देखता भी खुद ही था । फिल्म भी खुद और दृष्टा भी खुद। 'देखने' में कुछ फर्क है? प्रश्नकर्ता: अपनी प्रकृति को जो सतत देखते रहते हैं हम, अब यह जो देखने की क्रिया होती है तो कई बार ऐसा लगता है कि देखने की क्रिया बीच में किसी और के माध्यम से हो रही है। ऐसा लगता है दादाश्री : हाँ, लेकिन देखते तो हो न? प्रश्नकर्ता : हाँ, देख तो पाते हैं । ३७१ दादाश्री : अर्थात् जो स्थूल में है, वह ज़रा सूक्ष्म में होने लगता है धीरे-धीरे । जो देखते हो, जगत् खुद, खुद को नहीं देख सकता । कोई भी नहीं देख सकता। वही देखना है हमें कि ये चंदूभाई क्या कर रहे हैं? मन क्या कर रहा है? बुद्धि क्या कह रही है? चित्त क्या कर रहा है? अहंकार क्या कर रहा है? अब वह देखनेवाला जुदा रहता है, हंड्रेड परसेन्ट जुदा, भले ही कैसा भी मोटा-मोटा देखो या पतला देखो लेकिन देखनेवाला जुदा है। प्रश्नकर्ता: शुरुआत में जो देखने की क्रिया होती थी और अभी जो देखते हैं, इन दोनों देखने की क्रियाओं में फर्क महसूस होता है। दादाश्री : जब कर्म के उदय आते हैं न, तब धुँधला कर देते हैं सबकुछ लेकिन आप देखनेवाले तो अलग हो, यह बात तय है न! प्रश्नकर्ता : हाँ, वह तय है। दादाश्री : फिर जो धुँधला दिखता है तो वह कर्म के उदय के आधार पर है। उसमें परेशान नहीं होना है । प्रश्नकर्ता: और जब कर्म के उदय का प्रेशर आए, तब ऐसा लगता है कि हम जैसे एक तरफ रह गए हों ।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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