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________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ३६९ नियम सहित है। ऐसा सब मेरे ध्यान में रहता ही है। यह खाँसी होनी ही चाहिए थी। प्रश्नकर्ता : लेकिन परिणाम भोगना ही पड़ता है। दादाश्री : परिणाम का मतलब तो यह है कि हमें राज़ी-खुशी से भोगना पड़ता है। कॉज़ेज़ नहीं करने चाहिए। कॉज़ेज़ बंद कर देने चाहिए और अगर बंद न हो सकें तो उन्हें जानना चाहिए। कॉज़ेज़ बंद नहीं हो सकते क्योंकि पूर्व के संस्कार हैं। बंद नहीं हो सकते लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि यह भूल हो रही है। बस इतना ही। प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञाता-दृष्टाभाव। यदि इस बारे में ऐसा हुआ है तो अब वह चीज़ जीवन के हर एक व्यवहार में अपनाई जा सकती है? दादाश्री : हाँ, हर एक व्यवहार में होनी ही चाहिए। व्यवहार क्यों कहा जाता है क्योंकि निश्चय है इसलिए। अब, व्यवहार और निश्चय दोनों अलग ही हैं, व्यवहार इट सेल्फ ऐसा प्रूव करता है। हाँ, और पूरा व्यवहार ड्रामा है और निश्चय ड्रामेटिक भावना। इस तरह सारा व्यवहार चलता रहता है। व्यवहार ड्रामा है। उसे देखते रहना है! और कुछ नहीं है। प्रश्नकर्ता : दादा, वह इतना सरल नहीं है। जब तक ज्ञान नहीं लेते तब तक इसका पता ही नहीं चलता। दादाश्री : हाँ, नहीं चलता। एक अक्षर भी पता नहीं चलता। जब हम ज्ञान देते हैं तब ज़रा अलग पड़ता है, तब पता चलता है। देखना स्वभाव है, चलना विभाव है प्रश्नकर्ता : हिंदी आप्तवाणी में यह बात है कि इस समसरण मार्ग में दुनिया का एन्ड नहीं आता, अपना भी एन्ड नहीं आता। इस मार्ग का एन्ड आता है। आप जिस पर चलते हो, उसका एन्ड आता है। दादाश्री : ‘देखनेवाला' मुक्त हो गया। और अगर चलनेवाला उसके साथ होगा तो बंधन उसके साथ के साथ ही रहेगा!
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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