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________________ ३५० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) कितने अच्छे, अक्लमंद (तीर्थंकर भगवंत)! ओहोहो! इस पर तो मैं आफरीन हो गया था। उसे, 'कुछ है' तो ज्ञान में लिया इन लोगों ने। - वह बात भी सही है न! 'कुछ है' इसमें कुछ वास्तविकता लगी न कि 'कुछ है' ऐसा ज्ञान। अब लोगों को दर्शन का कैसे समझ में आए? तो जब मैं यह ज्ञान देता हूँ न, तो आपको उसी दिन या फिर दूसरे दिन सुबह लगता है कि 'कुछ है।' तब मैं जान जाता हूँ कि इसे क्षायक दर्शन हो गया है। अतः आपको मैंने सम्यक् दर्शन तो दिया है, लेकिन क्षायक समकित दिया है। लेकिन अब डिसाइडेड अर्थात् आप जो हो उस ज्ञान को अब जानना बाकी रहा आपको। अर्थात् उसका अनुभव होना चाहिए आपको। अब जैसे-जैसे आपको अनुभव होते जाएँगे, वैसे-वैसे ज्ञान होता जाएगा और आप कहते हो कि 'यस' अर्थात् अनुभव हो गया। वह डिसाइडेड ज्ञान हो जाता है। पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है। जब दर्शन और ज्ञान दोनों एक हो जाएँ, तब चारित्र में आता है। प्रश्नकर्ता : 'कुछ है' ऐसा समझ में आया तो वह दर्शन है और प्रत्यक्ष जो तय किया, वह ज्ञान है। दादाश्री : वह ज्ञान कहलाता है। अब 'कुछ है,' आपको ऐसा जो ज्ञान हुआ, उसका परिणाम आपने देखा लेकिन आपने अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं देखा है। स्पष्ट वेदन नहीं हुआ है, अस्पष्ट वेदन है। अत: आपको ऐसा लगा कि 'कुछ है,' लेकिन 'यही है' ऐसा डिसीज़न अभी तक नहीं आया है। प्रश्नकर्ता : अतः 'यही है' ऐसा संपूर्णरूप से तय नहीं हुआ है। दादाश्री : 'यही है' ऐसा संपूर्णरूप से तय कब होगा? केवलज्ञान होगा तब। जाना हुआ समझ में और समझा हुआ जानने में हम देखकर कह रहे हैं। यानी कि इन आँखों से नहीं देखा जा
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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