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________________ [३.१] ‘कुछ है' वह दर्शन, 'क्या है' वह ज्ञान है तब ज्ञाता बनता है। जब तक सारा भोजन ढका हुआ है, तब तक लगता है कि ‘खाने में कुछ है' तो वह दर्शन है और जब खाएगा तब कहेगा, 'यह है, ,' जो डिसाइडेड है वह ज्ञान कहलाता है। यह 'कुछ है' ऐसा लगा उस समय खुद दृष्टा है और डिसाइड हो जाए तब खुद ज्ञाता बनता है । वही का वही व्यक्ति। ‘कुछ है' वह एक प्रकार का ज्ञान है न! उसे क्यों निकाल देना है? वही खरा ज्ञान है । अर्थात् दर्शन और ज्ञान, चीज़ एक ही थी । ३४९ प्रश्नकर्ता : लेकिन अंत में तो आत्मा में तो तीनों ज्ञान-दर्शन और चारित्र में कोई भेद ही नहीं है न? यों तो ऐसा कहते हैं न कि ज्ञान - दर्शन और चारित्र, तो समझाने के लिए ये भेद किए गए हैं। दादाश्री : और कुछ नहीं है । आत्मा तो एक ही है। यह तो समझाने के लिए भेद बताया गया है क्योंकि लोगों को एकदम से ज्ञान नहीं हो जाएगा न! पहले उन्हें दर्शन होता है, प्रतीति में आता है । जब ये ज्ञान देते हैं, तब उसे ऐसा भान हो जाता है कि 'कुछ है ' । निरंतर आत्मा की प्रतीति वही क्षायक समकित प्रश्नकर्ता : ‘आत्मा दर्शन में आता है, ' इसका वास्तविक अर्थ क्या निकालना चाहिए? I दादाश्री : दर्शन अर्थात् दिखाई देना, प्रतीति होना । किसी भी चीज़ के लिए ‘कुछ है' ऐसा लगना चाहिए। पहले दर्शन होता है और बाद में भान होता है। उसके बाद डिसाइडेड होता है । और 'कुछ है, ' निरंतर ऐसी प्रतीति रहे, तब क्षायक सम्यक् दर्शन कहा गया है वर्ना थोड़े समय के लिए ऐसी प्रतीति रहती है कि 'कुछ है' और फिर वापस चली जाती है लेकिन इसमें तो निरंतर प्रतीति रहती है। प्रश्नकर्ता : यानी कि अभी सम्यक् दर्शन हुआ । दादाश्री : सम्यक् दर्शन में तो, समझो कि आत्मा की कुछ तो प्रतीति हुई और फिर आवरण आ जाता है जबकि यह तो क्षायक समकित है । इस पर आवरण आता ही नहीं ।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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