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________________ ३३२ दादाश्री : हाँ। आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) विश्रसा, प्रयोगसा, मिश्रसा प्रश्नकर्ता : तो क्या मिश्रसा और प्रयोगसा को द्रव्यकर्म और भावकर्म कहा जा सकता है ? दादाश्री : ऐसा है न, प्रयोगसा तो पहले हो जाता है। द्रव्यकर्म से पहले हो जाता है। बोलते ही हो जाता है। प्रयोगसा यानी जो शुद्ध परमाणु थे न, तो जब 'हम' बोलने लगते हैं, अंदर भाव किया तो उसके साथ ही अंदर परमाणु प्रविष्ट जाते हैं । वे सभी परमाणु रंग जाते हैं, इस प्रकार से प्रयोगसा हो जाते हैं । प्रयोगसा कब तक कहा जाता है? ये शुद्ध मूल विश्रसा परमाणु हैं । कुछ वाणी बोलें और जब वे अंदर प्रविष्ट हों तो वे प्रयोगसा हो जाते हैं, उसके बाद मिश्रसा होने में देर लगती है । जब मिश्रसा होते हैं तब वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं । तब तक द्रव्यकर्म नहीं कहलाते । मिश्रसा होते समय द्रव्यकर्म कहलाते हैं और द्रव्यकर्म बन जाने के बाद वापस उदय में आते हैं। I यों बहुत गहराई में मत उतरना । यह उतरने जैसा नहीं है । ये भूलभूलैया है। हम कहते हैं न कि इसमें मत घुसना, अंदर मत घुसना। अंदर घुसना ही मत। मुख्यतः आत्मा को ही जानना है । ये भूल-भूलैया है । सिर्फ आत्मा को जान लिया और अपने आप ही लक्ष (जागृति) में आ गया, हम याद न करें लेकिन फिर भी आ जाता है। रात को आप जागो तो यह अपने आप ही याद आ जाता है? वह सामने से आ जाता है न! प्रश्नकर्ता : सामने आ जाता है । दादाश्री : उसी को साक्षात्कारी ज्ञान कहते हैं । हाँ, अनुभव ज्ञान। अब आत्मा प्राप्त हो गया है । फिर उसे बाकी का सब जानकर क्या करना है! भगवान का शास्त्र तो बहुत गहरा है । उसका सार निकालने की शक्तियाँ नहीं हैं, इसलिए लोग तरह-तरह के शब्दों में फँसे हुए हैं।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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