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________________ ३२६ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) क्या बदल दिया है कि आपकी' 'दृष्टि' ही बदल दी। 'मैं चंदूभाई हूँ' और 'मैं इनका पति हूँ', वह सारी 'दृष्टि' चली गई और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यही दर्शन दिया। यों दृष्टि बदल गई। पहलेवाली दृष्टि बिगड़ी हुई थी इसलिए उल्टा ज्ञान हुआ था। यह 'दृष्टि' बदलती है, उससे फिर ज्ञान बदलता है और उससे चारित्र बदलता है। द्रव्यकर्म दिखाई देते हैं, तीर्थंकरों को ही प्रश्नकर्ता : द्रव्यकर्म को कैसे पहचाना जा सकता है, वह बताइए। दादाश्री : ऐसा है न, द्रव्यकर्म तो इस लोकभाषा में द्रव्यकर्म को जैसा मानते हैं कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष जो कर्म किए जाते हैं, वे सभी द्रव्यकर्म हैं। लेकिन वे सब तो नोकर्म हैं। इन्द्रियों में, अंत:करण पूरा ही सही है। यों जो खुली आँखों से दिखाई देते हैं, वे कर्म नोकर्म हैं। उनके अलावा भावकर्म हैं, जो खुले रूप से दिखाई नहीं देते, उन्हें सिर्फ ज्ञानी ही देख सकते हैं। प्रश्नकर्ता : नोकर्म कौन-कौन से हैं। दादाश्री : ये आपको जो दिखाई देते हैं, वे सभी नोकर्म हैं। प्रश्नकर्ता : द्रव्यकर्म? दादाश्री : जो नहीं दिखाई देते हैं, वे। द्रव्यकर्म मेरी समझ में तो आते हैं, लेकिन सिर्फ तीर्थंकरों को ही दिखाई देते हैं। मुझे समझ में आते हैं और आपको समझ में भी नहीं आ सकते। भावकर्म-नोकर्म के बीच सूक्ष्मभेद प्रश्नकर्ता : भावकर्म और नोकर्म के बीच का सूक्ष्म भेद उदाहरण देकर समझाइए। दादाश्री : भावकर्म क्या है? रात को ग्यारह बजे अपने घर कुछ लोग आए, पाँच-सात लोग आए हों तो उन्हें 'आइए, पधारिए' कहते हैं लेकिन मने में ऐसा होता है कि 'ये कहाँ से आ गए?' तो वह जो 'आइए, पधारिए'
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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