SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनंत मोह हैं। उनके सामने 'मैं अनंत सुख का धाम हूँ' ऐसा बोलने से मोह में से निकल सकते हैं। आठों कर्मों में सब से भारी कर्म मोहनीय है। उसे कर्मों का राजा कहा है! वह ज्ञानी की कृपा के बिना नहीं जा सकता। दर्शन मोहनीय को मिथ्यात्व कहा जाता है । चार घाती कर्मों की प्रबलता, वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व से आगे बढ़ने पर उसके तीन भाग हो जाते हैं १) मिथ्यात्व मोह २) मिश्र मोह ३) सम्यकत्व मोह जब मिथ्यात्व मोह मंद हो जाता है, तब मिश्रमोहनीय में आता है । मिश्रमोह अर्थात् संसार भी सही और मोक्ष भी सही, दोनों सही । मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय जाने पर समकित होता है । जब क्रोधमान-माया-लोभ, चारों चले जाएँ तब समकित होता है । पहले उपशम समकित, उसमें अर्धपुद्गल परावर्तन काल (ब्रह्मांड के सारे पुद्गलों को स्पर्श करके, भोगकर खत्म करने में जो समय (काल) व्यतीत होता है, उससे आधा काल) तक भटकता रहता है । फिर क्षयोपक्षम समकित होता है। बहुत काल तक भटकने के बाद क्षायक समकित होता है । जब सम्यकत्वमोहनीय भी चला जाए, तब क्षायक समकित होता है । उसके बाद निःशंक आत्मा प्राप्त होता है । अक्रम विज्ञान से सीधे ही निःशंक आत्मा प्राप्त हो जाता है। अक्रम में दर्शन मोहनीय और दर्शनावरण दोनों ही एक साथ टूट जाते हैं। यह अक्रम विज्ञान इस काल का आश्चर्य है ! धन्य है इस काल को भी ! द्रव्यकर्म बंधन का मुख्य कारण मोहनीय है। जो अक्रम ज्ञान से पूर्ण रूप से चला जाता है।! अब जो बचा हुआ मोह दिखाई देता है वह चारित्रमोह है, डिस्चार्ज मोह ही बचा है महात्माओं में ! [ २.५ ] अंतराय कर्म चीज़ें होने के बावजूद भी उनका उपयोग नहीं किया जा सके, वह 40
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy