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________________ [२.१२] द्रव्यकर्म + भावकर्म ३०५ तो सहज होती है। करुणा का जो स्वभाव है वह सहज होता है, उसमें क्रिया नहीं होती, करनेवाला नहीं होता। भावकर्म से ही कर्म बंधन होता है। प्रश्नकर्ता : तीर्थंकरों को जब आत्मज्ञान होता है तभी वे ऐसा भावकर्म बाँधते हैं न? दादाश्री : वह जो भावकर्म है वह आत्मज्ञान होने के बाद का तो है ही लेकिन समकित होने के बाद का भावकर्म है। सम्यक्त्व हो जाने के बाद 'जो सुख मैंने पाया, वह सुख लोग भी पाएँ,' यह है वह भावकर्म। जो तीर्थंकर गोत्र बाँधता है। हमारा भी ऐसा ही रहता है कि 'जो सुख मैंने पाया है, लोग उसे किस तरह से पाएँ उसी के लिए हमारी भावना रहती है। जबकि करुणा तो सहज भाव है। __ और करुणा जो है वह सहज ही रहती है। यों ही, सहज करुणा। कोई गालियाँ दे न तो सहज क्षमा रहती है। जो क्षमा है वह सहज करुणा ही है। अतः करुणा एक सहज गुण है जबकि दया भावकर्म का फल है। और तीर्थंकरों के तो भावकर्म होते ही नहीं न, तीर्थंकर होने के बाद! भावकर्म तो पहले हो चुके थे। हमें अभी भी इतना भावकर्म है कि कैसे लोगों का कल्याण करें! तीर्थंकरों ने तो कल्याण करने के भाव किए थे, उसी दिन उन्होंने यह तीर्थंकर गोत्र बाँधा था। तो वे अब सिर्फ तीर्थंकर गोत्र को खपा रहे हैं। उनका डिस्चार्ज ही होता रहता है। इसलिए उन्हें रहती हैं केवल करुणा! निरंतर करुणा ही रहती है। भावकर्म नहीं होते उनमें। जब तक भावकर्म रहता है, तब तक केवलज्ञान नहीं हो सकता। प्रश्नकर्ता : लेकिन कल्याण भाव का तो भाव होता है न, 'हर किसी का कल्याण हो।' दादाश्री : नहीं, वह जो भाव होता है, (वास्तव में) वह चार्ज भाव नहीं है। यह वह भाव नहीं है जिसे भगवान ने चार्ज कहा है और अभी हम जो एक जन्म या दो जन्म की बात कर रहे हैं न, उस समय शायद किसी में यह भाव आ भी सकता है, कल्याण का। लेकिन वह एक-दो जन्मों के लिए ही। अतः क्या है कि तीर्थंकरों को ऐसा भाव हुआ था कि 'मुझे जो
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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