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________________ है और नया द्रव्यकर्म उत्पन्न होता रहता है। जैसे-जैसे वह जलती है वैसेवैसे। इसमें ज्ञानावरण है। ज्ञानावरण कर्म की वजह से ज्ञान में आगे नहीं बढ़ सकते। वह प्रकाश नहीं होने देता। ज्ञान संपूर्ण है, फिर भी परदे के कारण ज्ञान प्रकट नहीं हो पाता। दो-चार लौकियाँ पड़ी हों, उनमें से कौन सी कड़वी है और कौन सी मीठी, ऐसा कैसे जाना जा सकता है? साधारणतया चखकर। चखकर यानी कि वह इन्द्रिय ज्ञान कहलाता है। बुद्धि से डायरेक्ट पता नहीं चल पाता अर्थात् ज्ञानावरण है। वह हट जाए तो बिना चखे ही सब पता चल जाए! अरे, पूरे ब्रह्मांड के एक-एक परमाणु कैसे ज्ञान में झलकेंगे! जहाँ पर ज्ञान दिया जा रहा हो वहाँ पर अगर प्रमाद का सेवन हो, तो उससे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म बंधते हैं। उपदेश और व्याख्यानों को सुनते हैं लेकिन कोई परिवर्तन नहीं होता, बल्कि बिगड़ते हैं, उससे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म बंधते हैं! किसी को ऐसा कहना कि 'आप इसमें नहीं समझोगे,' वह सब से बड़ा ज्ञानावरण कर्म कहलाता है। तो फिर क्या कहना चाहिए? 'भाई, सोचो, आप ज़रा सोचो तो सही!' इतना ही कहना चाहिए। ज्ञानी से मिलकर ज्ञानावरण टूटते हैं लेकिन खुद टेढ़ा हो तो वहाँ पर भी टेढ़ा ही चलता है! मूलभूत ज्ञानावरण किसे कहते हैं? 'मैं चंद, इसका पति, मैं वकील' ये ज्ञानावरण हैं। आत्मा का ज्ञान मिलने से वे ज्ञानावरण टूट जाते हैं। फिर जितना ज्ञानी की आज्ञा का पालन करें, उतनी ही प्रगति होती है। समाधि बरतती है! स्वरूप ज्ञान मिल जाने पर अज्ञान पूर्णरूप से चला जाता है। लेकिन ज्ञानावरण पूरी तरह से नहीं जाता। बीज का आवरण टूट जाने के बाद अगर आज्ञा में रहें तो उससे पूनम तक, संपूर्ण निरावरण पद तक पहुँचा जा सकता है! [२.३] दर्शनावरण कर्म दर्शनावरण अर्थात् दर्शन पर आवरण। जिस तरह आँखों में मोतिया 37
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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