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________________ [२.११] भावकर्म २८३ भाव हुआ कि भावकर्म खत्म जाता है। अतः अस्तित्व तो है लेकिन यदि आत्मा में अस्तित्व को माने तो भावकर्म नहीं है और अस्तित्व को इस देहाध्यास में माने तो भावकर्म है। अतः सिर्फ भावकर्म ही बाधक हैं, बाकी कुछ नहीं। भावकर्म से ही यह जगत् खड़ा होता है और उसी के परिणाम आते हैं। अगर भावकर्म बंद हो जाए तो उससे जगत् अस्त हो जाता है। उसके बाद सिर्फ फल भोगने बाकी रहते हैं। कर्ताभाव से भावकर्म फिर है मूल भाव कि यह 'मैंने किया' ऐसा कहा कि भाव उत्पन्न हुआ। कर्ताभाव से किया, तो वह कर्ता है, उससे भावकर्म बना। भोक्ताभाव से भोगना वह भी भावकर्म कहलाता है। इस ज्ञान के बाद, हम भोक्ताभाव से नहीं भोगते, हम निकाल भाव से भोगते हैं। हम समभाव से निकाल कर देते हैं और अज्ञान दशावाला तो भोक्ताभाव से भोगता है। आपको अनुभव होता है कि 'इट हेपन्स?' प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा। दादाश्री : क्या-क्या हो रहा है? प्रश्नकर्ता : सबकुछ हो ही रहा है, वहाँ पर अपना कर्तापन है ही कहाँ? दादाश्री : और जो कर्तापन है वह अंदर भावात्मक भाव से है। वह मैंने बंद कर दिया है। पूरा जगत् भावकर्म से ही कर्ता बनता है। उसे बंद कर दिया है हमने। ताला लगा दिया है वहाँ पर। ___ 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव रखना और फिर जो कुछ भी होता है वह भावकर्म कहलाता है। 'मैं इसका कर्ता हूँ' वह भावकर्म है। 'मैं कर्ता नहीं हूँ, इसका कर्ता व्यवस्थित है' ऐसा तो रहता है न? तो फिर क्या? तो भावकर्म खत्म हो गया।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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