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________________ २८२ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) से रुपए देने पड़ें, ऐसा होता है या नहीं होता? अब मेयर के दबाव की वजह से पचास हज़ार रुपए दिए। अब वे पचास हज़ार रुपए कौन जमा करेगा? कौन से खाते में जमा होंगे? क्योंकि उसका भाव तो ऐसा है। उसका भाव देने का नहीं है। यह तो मेयर का दबाव आया इसलिए दिए हैं। कोई पूछे कि 'क्या उसका दिया हुआ बिल्कुल बेकार जाएगा?' तो कहते हैं, 'नहीं, बेकार नहीं जाएगा। उसने दिया है उसका कुछ न कुछ फल तो मिलना ही चाहिए।' तो वह यह है कि, 'यहाँ इस संसार में, इस जन्म में मिल जाएगा।' लोग, ‘वाहवाह' करेंगे। लेकिन अगले जन्म में नहीं मिलेगा। और कोई व्यक्ति अगर भावपूर्वक देता है, तो उसकी इस संसार में भी लोग 'वाह-वाह' करेंगे और अब अगले जन्म में वापस उसका फल मिलेगा, ये दोनों मिलेंगे। इसे कहते हैं भावकर्म। अगर इस भाव को हम साफ रखें न, तो उसका फल यहाँ पर भी मिलेगा और वहाँ पर भी मिलेगा। और अगर भाव बिगाड़ा तो भावकर्म बिगाड़ दिया। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' तो खत्म हुआ भावकर्म प्रश्नकर्ता : ज़्यादातर कर्म तो भावकर्म से ही बंधते होंगे न? दादाश्री : भावकर्म से ही यह पूरा जगत् खड़ा हो गया है। हम भावकर्म बंद कर देते हैं चाबी से, इसलिए वह अलग हो जाता है। अत: कर्म बंधन रुक जाता है। आज्ञा का पालन करते हो न, सिर्फ उतना ही कर्म बंधन होता है, एक दो जन्म के लिए। पूरा जगत् भावकर्म से ही बंधा हुआ है। जब तक ऐसा है कि 'मैं' 'चंदूभाई हूँ', तब तक भावकर्म है और जब ऐसा हो जाए कि 'मैं शद्धात्मा हँ' तो वहाँ पर भावकर्म का बंधना बंद हो गया। भाव अर्थात् अस्तित्व। जहाँ खुद नहीं है, वहाँ पर खुद का अस्तित्व मानना, वही भावकर्म है। प्रश्नकर्ता : वस्तुत्व मानने का अर्थ अभाव है? दादाश्री : नहीं, वस्तुत्व के अभाव से भाव होता है। वस्तुत्व का
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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