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________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) होता है क्योंकि एक को ऐसा कहते हैं, और दूसरे को ऐसा कहते हैं । यहाँ पर तो एक ही तरह का कहते हैं । २७८ क्रोध- - मान-माया-लोभ जो पहले होते थे, उनसे तो भावकर्म था। अब आप चंदूभाई नहीं रहे, इसलिए भावकर्म खत्म हो गया । भावकर्म हमने निकाल दिया है। भावकर्म क्रमिकमार्ग में होता है, स्टेप बाई स्टेप में होता है । प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा कहा है कि कषाय होने की वजह से भावकर्म होते हैं तो चार में से अगर एकाध प्रकार का कषाय हो, तब भी उतना ही दोषित कहलाएगा? दादाश्री : चार में से एक होता ही नहीं है न, वे चारों साथ में ही होते हैं। लेकिन कोई ज़्यादा या कम होता है । एक नेता जैसा बन बैठता है अंदर । होते चारों ही हैं ! हम मारते नहीं है, हिंसा तो नहीं करते, लेकिन उनमें से एक की हम छुट्टी कर देते हैं यहाँ से, तो सभी चले जाते हैं । यानी मान नाम का कषाय है न, उसे हम छुट्टी दे देते हैं इसलिए बाकी के सभी कषाय चले जाते हैं । नहीं तो बाकी के सभी कषाय, क्रोध वगैरह छुट्टी देने से चले जाते हैं लेकिन वे तो बाद में वापस आ जाते हैं । और अगर सिर्फ मान खत्म हो जाए तो सबकुछ खत्म हो जाएगा । यों माया के छ: पुत्र हैं, क्रोध-मान-माया - लोभ, राग-द्वेष और सातवीं माया, वही जगत् में सभी को फँसा रही है। T I फिर ये जो आर्तध्यान- रौद्रध्यान और धर्मध्यान हैं, ये सभी भावकर्म है। फर्क भाव और भावकर्म में पूरा जगत् भावकर्म में फँसा हुआ है । भावकर्म अर्थात् बीज बोना । क्रमिकमार्ग अर्थात् भावकर्म पर आधारित । खराब बीज के बदले अच्छे बीज बोने और वापस उससे भी अच्छे बीज बोना, फिर उससे भी ज़्यादा अच्छे ऐसे करते-करते आगे बढ़ना होता है। प्रश्नकर्ता : मन में अच्छे विचार आते हैं, लोग तो उसी को भाव कहते हैं न?
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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