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________________ चाय पीओगे? डेढ़ कप ? भले ही पीओ।' वही ज्ञाता - दृष्टापन ! प्रकृति के साथ एडजस्ट होना आना चाहिए । प्रकृति तो सुंदर स्वभाव की है I दादाश्री कहते हैं, ‘हमारी प्रकृति को मठिया भाता है,' अमरीका में सभी लोग यह जान गए तो सभी जगह मठिया परोसते थे लेकिन उनमें से सिर्फ दो ही लोगों के यहाँ खाए । बाकी जगह चखकर छोड़ दिए, इससे किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि दादाजी को मठिया पसंद है । मठिया नहीं लेकिन मठिया में रहा हुआ जो स्वाद है, वह दादा की प्रकृति में है ! प्रकृति का फिर कैसा है कि आज जो भाता है, दो दिन बाद वह बिल्कुल भी नहीं भाता ! अतः प्रकृति की स्टडी करने जैसा है। [ १.९ ] पुरुष में से पुरुषोतम पुरुषार्थ दो प्रकार के हैं । एक तो, अगर पुरुष बनकर प्रकृति को अलग देखना, वह रियल पुरुषार्थ है और दूसरा है भ्रांत पुरुषार्थ, वह है अच्छे-बुरे का फल मिलना। पुरुष और प्रकृति की शक्ति में क्या फर्क हैं? पुरुष शक्ति पुरुषार्थ सहित होती है, स्व पराक्रम सहित होती है । वह शुद्धात्मा हो जाने के बाद ही प्रकट होती है। बाकी तो सारी प्राकृत शक्ति है। प्रकृति में तन्मयाकार रहते हैं इसलिए। ज्ञानी भी प्रकृति में रहते हैं लेकिन उसमें तन्मयाकार नहीं रहते । ज्ञानी सत के साथ बैठे होते हैं और अगर हम उनके पास बैठें तो हम भी सत के बहुत ही नज़दीक आ जाते हैं। पुरुष और प्रकृति को किस तरह से अलग किया जा सकता है? पुरुष अकर्ता है और प्रकृति कर्ता है । जहाँ-जहाँ क्रिया है, वहाँ प्रकृति है। भेद विज्ञान की प्राप्ति के बाद पुरुष और प्रकृति अलग हो जाते हैं। उसके बाद ज्ञानी की आज्ञा का पालन करने से पुरुषोत्तम बनकर रहेगा । जिनमें पोतापणुं नहीं है न, वे पुराण पुरुष पुरुषोत्तम भगवान कहलाते हैं! (‘मैं कह रहा हूँ तो वे मेरी क्यों नहीं सुनते ?' वह है पोतापणु) 32
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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