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________________ [२.६] वेदनीय कर्म २११ तब तुरंत ही सेठ क्या कहेंगे, 'यहाँ पर वायु हो गई।' लेकिन तब तक जो शाता वेदनीय भोगता है, वह हिसाब में लिखवाकर लाया है। अतः शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय, दो प्रकार की वेदनीय लेकर आते हैं। कितनी ही बार कुछ समय तक शाता रहती है और उसके बाद वापस अशाता आ जाती है। इस प्रकार पूरे दिन शाता-अशाता चलती ही रहती है। कोई गालियाँ दे तो अशाता वेदनीय, कोई फूलों का हार चढ़ाए तो फिर शाता वेदनीय। शरीर मिला है, इसी वजह से जब गर्मी पड़ने लगे तो सहन नहीं होती। पंखा चलाए कि शाता वेदनीय और सर्दी में अगर पंखा चलाए तो ठंड लगने लगती है, वह भी सहन नहीं होती। वह है अशाता वेदनीय। अशाता वेदनीय समझ गए न? पलभर में ऐसा हो जाता है कि चैन नहीं पड़ता, वेदनीय! दांत दुःखा या दाढ़ दुःखी कि अशाता वेदनीय हो गई। कोई पूछे कि 'क्यों आज चेहरा ऐसा लग रहा है?' तब कहेगा 'यह दाढ़ दुःख रही है।' वह कुछ भी उपाय करता है, ताकि दर्द मिट जाए। अंत में अगर कोई भी उपाय नहीं मिले तो लौंग का अर्क लगाकर सुन्न कर देता है। सुन्न करने से अंदर वेदना तो रहती है, लेकिन हमें पता नहीं चलता, वर्ना वेदना सहन नहीं होगी न! एक तो, इस शरीर को जितनी वेदना भोगनी है, 'आपकी' वह वेदना द्रव्यकर्म है। वेदना ! फिर चाहे वह सुख की वेदना हो या दुःख की वेदना, कड़वे की हो या मीठे की, लेकिन वह सब इन द्रव्यकर्मों में से उत्पन्न होता है। दो दुःख का इन्टरवल, वही सुख है प्रश्नकर्ता : हाँ, वह जो वेदनीय बताया है, ज़रा उसके विवरण की आवश्यकता है। दादाश्री : पूरी दुनिया दो प्रकार की वेदनीय में रहती है। पलभर में शाता और पलभर में अशाता। थाली में अगर सबकुछ नॉर्मल आए तो शाता रहती है, लेकिन यदि सब्ज़ी ज़रा तीखी आ जाए कि अशाता उत्पन्न हो जाती है।
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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