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________________ [२.५] अंतराय कर्म १९१ है।' कोई किसी और का कुछ फॉलो कर रहा हो, और कहे कि 'हमें जो मिल गया है, उसमें क्या बुराई है?' सामने से यह सही चीज़ मिलने का मौका आया लेकिन फिर भी वह उसे ले नहीं पाता। दादाश्री : ऐसा है न, चाहे कुछ भी मिल गया हो लेकिन अगर वह मन खुला रखे, ओपन, कि 'भाई मोक्ष का मार्ग मिल जाए तब तो हमें वही पकड़ लेना है।' लेकिन अगर ओपन नहीं रखा हो और कहे 'बस इसके अलावा और हमें किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है,' तो वह अंतराय है। खुद ने ही दीवार बना दी और अब वह दीवार खुद के लिए ही बाधक हो जाती है। फिर अगर उसे वह तोड़ना हो, तब वह खुद आकर हमसे कहे कि 'कि मेरे जो अंतराय हैं, उन्हें तोड़ना है और वह तोड़ने का निश्चय करे तो हम कृपा कर देते हैं और वे टूट जाते हैं। लेकिन खद के ही डाले हुए अंतराय हैं ये, किसी और के नहीं हैं। प्रश्नकर्ता : कितने ही लोगों को तो ऐसी समझ भी नहीं होती कि ये अंतराय मेरे ही हैं! दादाश्री : समझ ही नहीं होती कि यह मैं अंतराय डाल रहा हूँ या क्या कर रहा हूँ! प्रश्नकर्ता : उसे तो ऐसा ही लगता है कि मैंने जो किया, वही ठीक है। दादाश्री : ठीक ही है, ऐसा मानता है न! प्रश्नकर्ता : यदि ऐसा रहे कि 'मैं जो कर रहा हूँ वह ठीक ही है,' तो वहाँ पर और कोई उपाय है क्या? दादाश्री : उपाय तो अपने आप ही, जब क्रोध-मान-माया-लोभ चुभते हैं तब अपने आप ही उपाय हो जाता है न! वे जब चुभने लगें तब वापस कुछ अच्छा करना तो पड़ेगा ही। कहेगा ‘ऐसा नहीं चलेगा।' इन सब को, किसी को भी बुलाने नहीं जाना पड़ा। अपने आप ही, वह चुभन ही भेज देती है। निरंतर शकरकंद भट्ठी में भुन रहा हो, सभी वैसे भुन रहे हैं। अंतरदाह तो निरंतर चलता ही रहता है। वह चाहे अमरीका में हो या कहीं
SR No.030023
Book TitleAptavani Shreni 13 Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2015
Total Pages518
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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